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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 251 किंतु ज्ञानस्वरूपमेवेति चेन्न, तदभावे तस्याप्यभावानुषंगात् / तद्भावेपि च सिद्धं ज्ञेयपदस्य व्यवच्छेद्यमिति सार्थकत्वमेव। ज्ञानं हि स्याद्ज्ञेयं स्याद्ज्ञानं / अज्ञानं तु ज्ञेयमेवेति स्याद्वादिमते प्रसिद्ध सिद्धमेव / कथंचित्तव्यवच्छेद्यं न च ज्ञानं स्वत: परतो वा, येन रूपेण ज्ञेयं तेन ज्ञेयमेव येन तु ज्ञानं तेन ज्ञानमेवेत्यवधारणे स्याद्वादिविरोधः, सम्यगेकांतस्य तथोपगमात्। नाप्यनवस्था. परापरज्ञानज्ञेयरूपपरिकल्पनाभावात् तावदैव कस्यचिदाकांक्षानिवृत्तेः / साकांक्षस्य तु तत्र तत् रूपांतरकल्पनायामपि दोषाभावात् सर्वार्थज्ञानोत्पत्तौ सकलापेक्षापर्यवसानात् / पराशंकितस्य वा सर्वस्याज्ञेयस्य व्यवच्छेद्यत्ववचनान्न ज्ञेयपदस्यानर्थकत्वं / सर्वपदं व्यादिसंख्यापदं वानेन सार्थकमुक्तमसर्वस्याद्व्यादेश्च व्यवच्छेद्यस्य सद्भावात् / न ह्यसर्वशब्दाभिधेयानां ज्ञान सर्वांग रूप से ज्ञान स्वरूप ही है। जैनाचार्य कहते हैं, ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि ज्ञायक और ज्ञेय के अभाव में ज्ञान के अभाव का भी प्रसंग आता है तथा ज्ञान का सद्भाव होने पर ज्ञान ज्ञेय पद का व्यवच्छेद्य सिद्ध हो जाता है अत: व्यवच्छेद्य के सद्भाव होने पर ज्ञेय पदके सार्थकपना है। ____ “स्याद्वाद सिद्धान्त में, ज्ञान ज्ञेय स्वरूप भी है और ज्ञान स्वरूप भी है परन्तु अज्ञान (जड़स्वरूप धर्मादि द्रव्य वा पुद्गल) ज्ञेय ही है। यह प्रसिद्ध ही है। इसलिए ज्ञान ज्ञेय का कथंचित् व्यवच्छेदक सिद्ध ही है।" ___ज्ञान, स्व वा पर की अपेक्षा से ज्ञायक होकर जिस स्वभाव से ज्ञेय है, उस स्वरूप से ज्ञेय ही है भौर जिस स्वरूप से ज्ञान है उस स्वरूप से ज्ञान स्वरूप ही है, इस कथन में स्याद्वाद सिद्धान्त में विरोध नहीं है क्योंकि सम्यग् एकान्त में (परस्पर सापेक्ष नय में) इस प्रकार स्वीकार किया है अतः इसमें अनवस्था दोष भी नहीं है क्योंकि इसमें परापर उत्तरोत्तर ज्ञान और ज्ञेयरूप परिकल्पना का अभाव है अर्थात् ज्ञान के अंश में ज्ञेयत्व और ज्ञानत्व माना जाता है और उस ज्ञान में दूसरे कारणों से ज्ञेयत्व एवं ज्ञानत्व माना जाता है, उसमें फिर तीसरे से माना जाता है तब अनवस्था दोष आता है परन्तु जब ज्ञान के ज्ञानत्व और ज्ञेयत्व स्वभाव को कथंचित् सम्यग् एकान्त (नय विवक्षा) से पृथक् मान लेने पर अनवस्था दोष नहीं आता है क्योंकि उत्तरोत्तर दूसरे ज्ञान ज्ञेय स्वरूपों की धारावाहिनी कल्पना न होने के कारण उतने से ही ज्ञाता की आकांक्षा निवृत्त हो जाती है परन्तु आकांक्षा सहित पुरुष के रूपान्तर की कल्पना करने में दोषों का अभाव है अर्थात् कुछ प्रश्नों के बाद उसकी आकांक्षा स्वयमेव समाप्त हो जाती है। तथा परिपूर्ण ज्ञान उत्पन्न हो जाने पर सम्पूर्ण अपेक्षाओं का अन्त हो जाता है अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न हो जाने पर ज्ञान और ज्ञेय स्वरूपों को जानने की आकांक्षा ही नहीं रहती है। सम्पूर्ण ज्ञान ज्ञेयों के युगपत् प्रत्यक्ष हो जाने पर सभी इच्छाओं का अवसान हो जाता है। दूसरों के द्वारा शंका किये गये सम्पूर्ण अज्ञेयों के व्यवछेद्यत्व का कथन करने से ज्ञेयपद की अनर्थकता नहीं है। इसी प्रकार सर्व पद अथवा दो तीन आदि संख्यावाची पद भी सार्थक हैं। इसका भी उक्त कथन से निरूपण कर दिया है। क्योंकि सर्वपद का व्यवच्छेद्य असर्व और दो संख्या का व्यवच्छेदक दो रहित आदि संख्या का सद्भाव पाया जाता है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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