________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 250 कथं प्रतिक्षिप्यते / यदि पुनर्ज्ञानस्यापि स्वतो ज्ञायमानत्वान्नाज्ञेयत्वमिति मतं, तदा सर्वथा ज्ञानाभावात् कुतो ज्ञेयव्यवस्था ? स्वतो ज्ञेयं ज्ञानमिति चेत् न, ज्ञायकस्य रूपस्य कर्तृसाधनेन ज्ञानशब्देन वाच्यस्य करणसाधनेन वा साधकतमस्य भावसाधनेन च क्रियामात्रस्य कर्मसाधनेन प्रतीयमानाद्रूपाद्भेदेन प्रसिद्धरज्ञेयत्वोपपत्तेः / कथमज्ञेयस्य ज्ञायकत्वादेर्ज्ञानरूपस्य सिद्धिः ? ज्ञायमानस्य कुतः ? स्वत एवेति चेत्, परत्र समानं / यथैव हि ज्ञानं ज्ञेयत्वेन स्वयं प्रकाशते तथा ज्ञायकत्वादिनापि विशेषाभावात् / ज्ञेयांतराद्यनपेक्षस्य कथं ज्ञायकत्वादिरूपं तस्येति चेत् ज्ञायकाद्यनपेक्षस्य ज्ञेयत्वं कथं ? स्वतो न ज्ञेयरूपं नापि ज्ञायकादिरूपं ज्ञानं सर्वथा व्याघातात् यदि पन: ज्ञान के स्वत: ज्ञायमान होने से अज्ञेय नहीं है अपित ज्ञेय स्वरूप ही है. इसलिए सर्वथा ज्ञान पदार्थ का अभाव होने से ज्ञेय व्यवस्था कैसे होगी। वह ज्ञान स्वत: ज्ञेय हो जाएगा, ऐसा भी नहीं कह सकते? क्योंकि ऐसा मानने पर तो ज्ञेय से ज्ञान भिन्न सिद्ध हो जाता है। भावार्थ : ‘ज्ञा' धातु से कर्ता, करण, भाव और कर्म में 'युट्' प्रत्यय लगाकर ज्ञान शब्द की निष्पत्ति की जाती है। कर्तृ साधन में ज्ञान शब्द से ज्ञायक आत्मा का स्वरूप वाच्य होता है। करण साधन से सिद्ध ज्ञान शब्द से ज्ञप्ति क्रिया का स्वरूप वाच्यार्थ होता है। वा करण साधन के द्वारा साधकतम का ज्ञान होता है। भाव साधन के द्वारा निष्पन्न शब्द ज्ञप्ति मात्र क्रिया का वाचक होता है। कर्म साधन के द्वारा निष्पन्न शब्द से ज्ञेय अर्थ वाच्य होता है। इस प्रकरण में कर्मत्व से सिद्ध ज्ञेय रूप से कर्ता, कर्म, करण और भाव रूप से प्रतीयमान ज्ञान शब्द भेद रूप से प्रसिद्ध है अतः ज्ञान के अज्ञेयपना सिद्ध होता है। अर्थात् वह ज्ञान केवल ज्ञेय पद का व्यवच्छेदक है। “अज्ञेय के ज्ञायकत्वादि के ज्ञान स्वरूप की सिद्धि कैसे हो सकती है ? अर्थात् कर्ता, करण और भाव साधन से निष्पन्न ज्ञायकत्व, ज्ञानत्व और ज्ञप्तिपन इन अज्ञेयों को युट् प्रत्यय वाले ज्ञान स्वरूप की सिद्धि कैसे हो सकती है।" ऐसा कहने पर प्रश्न उठता है कि जानने योग्य ज्ञेय को कर्म में युट् प्रत्यय करने पर ज्ञानपना कैसे सिद्ध होता है ? यदि कहो कि जानने योग्य ज्ञान को तो स्वत: ज्ञानरूपता सिद्ध है, तब तो दूसरों (ज्ञायक करण, ज्ञान और ज्ञप्ति) में भी समान रूप से स्वयमेव ज्ञानरूपता सिद्ध हो जाती है। जैसे ज्ञान ज्ञेयत्वस्वरूप से स्वयं प्रकाशित है उसी प्रकार वह ज्ञान ज्ञायकत्वादि रूप से भी स्वयं प्रकाशित हैक्योंकि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। “यदि कहो कि ज्ञेयान्तरों की अपेक्षा नहीं रखने वाले ज्ञान के ज्ञेयत्व, ज्ञानत्व आदि स्वरूप उस ज्ञान के कैसे कहे जा सकते हैं? तो प्रश्न उठता है कि ज्ञायक, ज्ञप्ति और ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखने वाले के ज्ञेयपना कैसे माना जा सकता है? यदि कोई ज्ञानाद्वैतवादी कहे कि ज्ञान न तो स्वयं ज्ञेय स्वरूप है और न ज्ञायक एवं ज्ञप्ति स्वरूप है क्योंकि सभी प्रकारों से व्याघात है अर्थात् ज्ञान के शुद्ध पूर्ण शरीर में ज्ञायकपन और ज्ञेयपन धर्म के लिए स्थान नहीं है यदि ज्ञायकपन, ज्ञेयपन होगा तो ज्ञानत्व नहीं रह सकता किन्तु वह