________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 249 पदांतरापेक्षत्वात्तेषां विशेषस्तन्निरपेक्षेभ्यः केवलेभ्य इति चेत् , न। तस्य सतोऽपि तथा प्रविभागकरणासामर्थ्यात्। न हि स्वयमसमर्थानां वाक्यार्थप्रतिपादने सर्वथा पदांतरापेक्षायामपि सामर्थ्यमुपपन्नमतिप्रसंगात्, तदा तत्समर्थत्वेन तेषामुत्पत्तेः / केवलावस्थातो विशेष इति चेत्तर्हि वाक्यमेव वाक्यार्थप्रकाशने समर्थं तथा परिणतानां पदानां पदव्यपदेशाभावात् / यदि पुनरवयवार्थेनानर्थवत्त्वं केवलानां तदा पदार्थाभाव एव सर्वत्र स्यात् ततोन्येषां पदानामभावात् / वाक्येभ्योपोद्धृत्य कल्पितानामर्थवत्त्वं न पुनरकल्पितानां केवलानामिति ब्रुवाणः कथं स्वस्थ:? व्यवच्छेद्याभावश्चासिद्धः केवलज्ञेयपदस्याज्ञेयव्यवच्छेदेन स्वार्थनिश्चयनहेतुत्वात् / सर्वं हि वस्तु ज्ञानं ज्ञेयं चेति द्वैराश्येन यदा व्याप्तमवतिष्ठते तदा ज्ञेयादन्यतामादधानं ज्ञानमज्ञेयं प्रसिद्धमेव ततो ज्ञेयपदस्य तद्व्यवच्छेद्यं ____समुदाय रूप अर्थ की अपेक्षा से उन अकेले पदों को निरर्थक मानने पर वाक्य में स्थित पदों के भी निरर्थकत्व का प्रसंग आयेगा क्योंकि वाक्यगत पद में और अकेले पद में विशेषता का अभाव है। . “वाक्यगत पद अन्य पदों की अपेक्षा रखते हैं जैसे 'वस्त्रमानय' इसमें 'वस्त्र' पद लाओ पद की अपेक्षा रखता है और लाओ पद वस्त्र की अपेक्षा रखता है किन्तु केवल अकेला पद निरपेक्ष होता है अत: निरपेक्ष और सापेक्ष की अपेक्षा केवलपद और वाक्य गत पद में विशेषता है, ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि सापेक्ष और निरपेक्ष की अपेक्षा दोनों पदों में अन्तर होते हुए भी उनमें स्पष्ट विभाग करना शक्य नहीं है। जो पद वाक्य के अर्थ का निरूपण करने में स्वयं सर्वथा असमर्थ है उसके अन्यपदों की अपेक्षा होने पर भी सामर्थ्य उत्पन्न नहीं हो सकता अन्यथा अतिप्रसंग दोष आता है अर्थात् स्वयं शक्ति रहित होते हुए भी दूसरों की अपेक्षा से कार्य करेगा तो कोई भी पदार्थ किसी के भी सहयोग से कार्य करने में समर्थ हो जायेगा। यदि कहो कि उस समय वाक्य की अवस्था में उस वाक्यार्थ के प्रतिपादन करने के सामर्थ्य से युक्त पदों की नवीन उत्पत्ति होती है इसलिए अकेले पद की अपेक्षा वाक्यगत पद में विशेषता है तब तो वाक्य ही वाक्यार्थ का प्रतिपादन करने में समर्थ है। अत: वाक्यार्थ परिणत पदों के समुदाय में वाक्य का व्यवहार होता है पद के व्यवहार का अभाव है। यदि पुन: अवयवरूप अर्थ से केवल पदों को अर्थ रहित माना जाएगा तो सर्वत्र पदार्थों के अभाव का प्रसंग आयेगा क्योंकि खण्ड रूप अवयव अर्थों को कहने वाले पदों से अतिरिक्त अन्य पदों का अभाव है अर्थात् अवयवों की शक्तियों से ही अवयवी की शक्ति बनती है जैसे तन्तुओं के समूह से ही वस्त्र बनता है। वाक्यों से पृथक् करके कल्पित किये गये पदों को तो अर्थवान माना जाये परन्तु वाक्य से रहित अकल्पित पदों को अर्थवान नहीं माना जाये अर्थात् वाक्यगत पद तो अनेक अर्थों को कहने वाले हैं, अकेले पद अर्थ को कहने वाले नहीं है,ऐसा कहने वाला (मीमांसक) विचारशील (बुद्धिमान) कैसे हो सकता है? पूर्व में कथित ज्ञेय आदि पद के समान केवल पद का व्यवच्छेद्य नहीं होने से केवल पद का बोलना निरर्थक है। यह व्यवच्छेद्य का अभाव कहना असिद्ध है क्योंकि केवल ज्ञेय पद को अज्ञेय के व्यवच्छेद करके अपने अर्थ के निश्चय करने वाले का हेतुपना प्राप्त है। जब सम्पूर्ण वस्तुएँ ज्ञान और ज्ञेय इन दो राशियों में व्याप्त होकर व्यवस्थित हैं तब ज्ञेय से कथञ्चित् भिन्नता को धारण करने वाला ज्ञान अज्ञेय रूप से प्रसिद्ध ही है। इसलिए ज्ञेय पद का वह (ज्ञान) व्यवच्छेद्य है इसका निराकरण कैसे हो सकता है?