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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 248 नावधारणं निराकर्तुमीशास्तदभावे विधायकवाक्यादन्यप्रतिषेधवाक्यगतेरयोगात् / यदि चैकं वाक्यमेकमेवार्थ ब्रूयादनेकार्थस्य तेन वचने भिद्येत तदितिमतं तदा पदमपि नानेकार्थमाचक्षीतानेकत्वप्रसंगात् / तथा च य एव लौकिकाः शब्दास्त एव वैदिका इति व्याहन्येत / पदमेकमनेकमर्थं प्रतिपादयति न पुनस्तत्क्रमात्मकं वाक्यमिति तमोविजूंभितमात्रं, पदेभ्यो हि यावतां पदार्थानां प्रतिपत्तिस्तावंतस्तदवबोधास्तद्धेतुकाश्च वाक्यार्थावबोधा इति चतुःसंधानादिवाक्यसिद्धिर्न विरुध्यते / केवलं पदमनर्थकमेव ज्ञेयादिपदवद्व्यवच्छेद्याभावाद् वाक्यस्थस्यैव तस्य व्यवच्छेद्यसद्भावादिति येप्याहुस्तेपि शब्दन्यायबहिष्कृता एव, वाक्यस्थानामिव केवलानामपि पदार्थानामर्थवत्त्वप्रतीतेः / समुदायार्थे तेषामनर्थवत्त्वे वाक्यगतानामपि तदस्तु विशेषाभावात्। कहते हैं कि प्रतिषेध करने वाला दसरा वाक्य अन्य निवृत्ति का बोधक है उस विधायक वाक्य के सामर्थ्य से दूसरा प्रतिषेध वाक्य जान लिया जाता है और उस प्रतिषेध वाक्य से अन्य के प्रतिषेध का ज्ञान हो जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने वाले भी अवधारण को निराकरण करने के लिए समर्थ नहीं हैं क्योंकि उस अवधारण के बिना विधायक वाक्य से अन्य निषेधक वाक्य की अर्थापत्ति होने का. अयोग है। मीमांसक मतानुसार एक वाक्य एक ही (विधि या निषेध) अर्थ को कहता है, यदि अनेक अर्थ का उस वाक्य के द्वारा कथन माना जाएगा तो वह वाक्य उतने प्रकार का भिन्न-भिन्न हो जाएगा अर्थात् दो वाक्य विधि और निषेध दो अर्थों को कहते हैं, एक नहीं। ऐसा मीमांसक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैंतब तो एक पद भी अनेक अर्थों को नहीं कह सकेगा, यदि एक पद अनेक अर्थ को कहेंगा तो एक पद के भी अनेकत्व का प्रसंग आयेगा और ऐसा होने पर “जो लौकिक शब्द हैं, वे ही वैदिक शब्द हैं' कथन में व्याघात दोष आएगा। एक पद तो अनेक अर्थों का प्रतिपादन करे और उन पदों का क्रमात्मक वाक्य अनेक अर्थों का प्रतिपादन नहीं करे ऐसा कहना अज्ञान अन्धकार की चेष्टा मात्र है क्योंकि पदों (शब्दों) से जितने पदार्थों का ज्ञान होता है उतने उनके ज्ञान और उन पद ज्ञानों के हेतु मानकर उत्पन्न होने वाले वाक्यार्थ उतने ही मानने पड़ेंगे। इस प्रकार एक पद या श्लोक के चार, सात आदि अर्थों को कहने वाले चतुःसंधान, सप्तसंधान आदि वाक्यों की सिद्धि होने में कोई विरोध नहीं है अर्थात् एक पद वा वाक्य के अनेक अर्थ हो सकते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है। "ज्ञेयादि पदों के समान व्यवच्छेद का अभाव होने से केवल पद का प्रयोग करना व्यर्थ है अर्थात् जैसे ज्ञेय पद का कोई व्यावर्त्य (व्यवच्छेदक) नहीं है क्योंकि वस्तुभूत पदार्थ ज्ञेय से बाह्य नहीं है, ज्ञेय स्वरूप ही है उसी प्रकार अकेले पद का भी कोई व्यवच्छेद नहीं है क्योंकि वाक्य में स्थित उस पद का व्यवच्छेद्य विद्यमान है। “इस प्रकार कहने वाले भी शब्द न्याय से बहिष्कृत हैं अर्थात् वे न्याय शास्त्र की नीति के ज्ञायक नहीं हैं, क्योंकि वाक्य में स्थित पदों के समान अकेले पदों का भी अर्थ सहितपना प्रतीत होता है। 1. किसी स्थान पर अर्थभेद में शब्दभेद मानना और किसी स्थान पर अर्थभेद में शब्दभेद नहीं मानना व्याघात दोष है। 2. पदों के समूह को वाक्य कहते हैं।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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