________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 247 तस्याविशेषणत्वायोगात्तद्विशेषणत्वे वा विशेष्यस्य निरूपत्वप्रसंगादन्यथा नीलोपहितस्योत्पलादेर्नीलत्वविरोधात् तदन्यव्यावृत्तवस्तुदर्शनभाविना तु प्रतिषेधविकल्पेन प्रदर्शितायास्तस्याः प्रतीतेर्विधिविकल्पोपदर्शितशब्दार्थविधिसामर्थ्याद्गतिरभिधीयत इति के षांचिदभिनिवेशः सोपि पापीयान्, स्वार्थविधिसामर्थ्यादन्यव्यावृत्तिगतिवत् क्वचिदन्यव्यावृत्तिसामर्थ्यादपि स्वार्थविधिगतिप्रसिद्धेः शब्दानित्यत्वसाधने सत्त्वादेर्व्यतिरेकगतिसामर्थ्यादन्वयगतेरभ्युपगमात् तदभिधानेन्यथा पुनरुक्तत्वाघटनात् शब्देन विधीयमानस्य निषिध्यमानस्य च धर्मस्य वस्तुस्वभावतया साधितत्वात् / सर्वथा धर्मनैरात्म्यस्य साधयितुमशक्तेश्च, बौद्धेपि च शब्दस्यार्थे अवधारणस्यासिद्धेरलं विवादेन / केचिदाहुः-नैकं वाक्यं स्वार्थस्य विधायक सामर्थ्यादन्यनिवृत्तिं गमयति / किं तर्हि ? प्रतिषेधवाक्यं, तत्सामर्थ्यगतौ तु ततोन्यप्रतिषेधगतिरिति तेपि तथा उस तुच्छ व्यावृत्ति से विशिष्ट अर्थ भी शब्द का वाच्य अर्थ नहीं है क्योंकि वह नि:स्वभाव अन्य व्यावृत्ति तो अर्थ का विशेषण नहीं हो सकती है। यदि नि:स्वभाव व्यावृत्ति को वस्तुभूत अर्थ का विशेषण मान लिया जायेगा तो उसका विशेष्य अर्थ भी नि:स्वभाव हो जायेगा। स्वभावरहित व्यावृत्ति यदि विशेषण हो जाएगी तो विशेष्य को भी स्वभावरहित अवस्तु बना देगी। अन्यथा नील विशेषण से युक्त इन्दीवर (कमल) आदि के नीलत्व का विरोध आयेगा। वस्तुभूत स्वलक्षण तो उससे अन्य सजातीय और विजातीय पदार्थों से स्वयं व्यावृत्त है। ऐसे वस्तुभूत स्वलक्षण के प्रत्यक्ष दर्शन के पीछे होने वाले निषेधक विकल्प ज्ञान से दिखाई गई उस अन्य व्यावृत्ति की प्रतीति हो जाती है। इसलिए विधि और उसके विशेष भेद-प्रभेदों के विकल्प ज्ञान के द्वारा दर्शित शब्द के वाच्यार्थ की विधि के सामर्थ्य से वह अन्य व्यावृत्ति कह दी जाती है। इस प्रकार किसी (बौद्ध) का सिद्धान्त है। उसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं-यह एकान्त आग्रह भी पापबहुल है क्योंकि स्वार्थ की विधि के सामर्थ्य से अर्थापत्तिद्वारा जैसे अन्य व्यावृत्ति का ज्ञान हो जाता है, वैसे ही क्वचित् अन्य व्यावृत्ति के सामर्थ्य से स्वार्थ की विधि का ज्ञान होना प्रसिद्ध हो रहा है। जैसे शब्द के अनित्यत्व को सिद्ध करते हुए सत्त्व कृतकत्व आदि हेतुओं के व्यतिरेक का पूर्व में ज्ञान करके तत्पश्चात् उसके सामर्थ्य से अन्वय का ज्ञान होना स्वीकार किया है अर्थात् नित्य वा कालान्तर स्थायी पदार्थ में सत्त्व नहीं रहता है इस व्यतिरेक से जोजो सत्त्व हैं वे कालान्तर स्थायी नित्य नहीं हैं। वैसा कथन करने पर ही वस्तु का अन्वय व्यतिरेक पना सिद्ध होता है अन्यथा पुनरुक्त पना नहीं घटता है अर्थात् विपक्ष व्यावृत्ति रूप व्यतिरेक से सपक्षवृत्तिरूप अन्वय का ज्ञान मानने पर ही पुनरुक्त दोष नहीं आता है, अन्यथा पुनरुक्त दोष का प्रसंग आता है। शब्द के द्वारा विधान करने योग्य या निषेध करने योग्य धर्म की वस्तु के स्वभाव स्वरूप से सिद्धि की गई है। सर्वथा धर्म वा स्वभाव से रहित निःस्वरूप वस्तु की सिद्धि करना शक्य नहीं है। शब्द के द्वारा जानने योग्य अर्थ में या सुगत प्रतिपादित अर्थ में भी अवधारणा नहीं करना सिद्ध नहीं है। अधिक विवाद से क्या प्रयोजन है। ___ कोई (मीमांसक) कहता है कि एक ही वाक्य अपने अर्थ का विधायक (कथन करने वाला) और सामर्थ्य (अर्थापत्ति) से अन्य की व्यावृत्ति का गमक नहीं है तो शब्द का स्वरूप कैसा है? ऐसा पूछने पर 1. अपने स्वभाव से विशेष्य को जो अपने अनुरूप रंग देता है उसको विशेषण कहते हैं और विशेषण के अनुरूप जो रंग जाता है वह विशेष्य कहलाता है।