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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 246 व्यवच्छे द्यतोपपत्तेः स्वयमनिष्ट तत्त्ववत् / यदेव मूढमतेराशंकास्थानं तस्यैव निवर्त्यत्वात् क्वचित्किंचिदनाशंकमानस्य प्रतिपाद्यत्वासंभवात् तं प्रयुंजानस्य यत्किंचनभाषितत्वादुपेक्षाहत्वात् / तत एव सर्वः शब्दः स्वार्थस्य विधायकः प्राधान्यात् सामर्थ्यादन्यस्य निवर्तकः सकृत्स्वार्थविधानस्यान्यनिवर्तनस्य चाऽयोगात् / न हि शब्दस्य द्वौ व्यापारौ स्वार्थप्रतिपादनमन्यनिवर्तनं चेति, तदन्यनिवृत्तेरेवासंभवात् तस्याः स्वलक्षणादभिन्नायाः स्वसमानस्वलक्षणेष्वनुगमनायोगादेकस्वलक्षणवत् / ततो भिन्नायास्तदन्यव्यावृत्तिरूपत्वाघटनात् स्वलक्षणांतरवत् स्वान्यव्यावृत्तेरपि च तस्या व्यावृत्तौ सजातीयेतरस्वलक्षणयोरैक्यप्रसंगादवस्तुरूपायाः स्वत्वान्यत्वाभ्यामेवावाच्यायां निरूपत्वात् इदमस्माद्व्यावृत्तमिति प्रत्ययोपजननासमर्थत्वान्न शब्दार्थत्वं नापि तद्विशिष्टार्थस्य ___ जैसे जो स्वयं को अनिष्ट है-उस तत्त्व का व्यवच्छेद किया जाता है। जो मूढमति के शंका का स्थान है वही निवृत्ति करने योग्य है। कहीं भी कुछ भी शंका को नहीं करने वाला मूढ़मति शिष्य प्रतिपादन करने योग्य नहीं है। उसको प्रतिपादन करना असंभव है। शिष्य के प्रति समझाने का प्रयोग करने पर कुछ भी शंका नहीं करने वाला शिष्य समझाने योग्य नहीं है, अपितु उपेक्षा करने योग्य है। वास्तव में तर्क करने वाली और नवीन उन्मेष उठाने वाली बुद्धियुक्त शिष्य ही प्रतिपादन करने योग्य है। इसलिए सर्व शब्द प्रधानता से स्वार्थ (वाच्यार्थ) के विधायक हैं और गौण रूप से अर्थापत्ति के. सामर्थ्य से अन्य के निवर्तक भी हैं। एक ही साथ में स्वार्थ का विधान और अन्य का निषेध होने का योग नहीं है कोई कहता है-एक ही शब्द के स्वार्थ का प्रतिपादन और अन्य का निषेध करना ये दो कार्य हो नहीं सकते, वस्तुत: विचारा जाए तो उस स्वार्थ के अतिरिक्त अन्य की निवृत्ति होना ही असंभव है क्योंकि वह अन्य निवृत्ति यदि स्वलक्षण से अभिन्न मानी जाती है, तब तो जैसे एक व्यक्तिरूप स्वलक्षण का स्वकीय समान स्व लक्षणों में अनुगम नहीं होता है उसी प्रकार अन्य निवृत्ति का सदृश स्वलक्षणों में अन्वयपना नहीं है अर्थात् जाति और द्रव्य तो अन्वित होकर रह सकते हैं किन्तु विशेष व्यक्ति अन्य व्यक्तियों में अनुगम नहीं करते हैं। उस स्वलक्षण से उसकी अन्य निवृत्ति को यदि भिन्न माना जायेगा तो वह अन्य व्यावृत्ति रूप से घटित नहीं हो सकता। जैसे एक गौरूप स्वलक्षण से महिषीरूप दूसरा स्वलक्षण अन्य व्यावृत्त रूप नहीं है किन्तु वह तो अन्य ही है। अत: वह नास्तिरूप है। यदि स्वलक्षण की अन्य व्यावृत्ति को भी उस न्यारी व्यावृत्ति से पृथक् मानोगे तब तो सजातीय और विजातीय स्वलक्षणों के एक हो जाने का प्रसंग आयेगा। अन्य व्यावृत्ति तो तुच्छ पदार्थ है-वस्तुभूत नहीं है, अवस्तु है अत: उसका स्वलक्षण के स्वकीयपने से या भिन्नपने से कथन ही नहीं किया जासकता है। ऐसी दशा में स्वभाव रहित निरुपाख्य है इसलिए यह इससे व्यावृत है। इस प्रकार के ज्ञान को उत्पन्न करने में वह समर्थ नहीं है अतः शब्द का वाच्यार्थ अन्य व्यावृत्ति नहीं है। .
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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