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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 245 नैषीरित्यन्यव्यावृत्तेरप्रतिपत्तेस्तद्वैयर्थ्यप्रसंगोनुक्तसमत्वात् / सुरा न पातव्येत्यादिप्रतिषेधकशब्दप्रयोगे च सुरातोन्यस्योदकादेः पानविधेरप्रतीतेः सुराशब्दप्रयोगस्यानर्थकत्वापत्तिः, सुरापानस्यैव ततः प्रतिषेधात् पय:पानादेरप्रतिषेधादविधानाच्च न दोष इति / किमिदानीं शब्दस्य क्वचित्प्रतिषेधनं तदन्यत्रौदासीन्यं च विषयः स्यात् तथा क्वचिद्विधानं तदन्यत्र विधानं न प्रतिषेधनं चेति नैवं व्याघातादिति चेत् , तत एवान्याप्रतिषेधे स्वार्थस्य विधानं तदविधाने चान्यप्रतिषेधो माभूत् / सर्वस्य शब्दस्य विधिप्रतिषेधद्वयं विषयोस्तु तथा चावधारणमनर्थकं तदभावेपि स्वार्थविधानेऽन्यनिवृत्तिसिद्धरित्यपरः, तस्यापि सकृद्विधिप्रतिषेधौ स्वार्थेतरयो: शब्दः प्रतिपादयंस्तदनुभयव्यवच्छेदं यदि कुर्वीत तदा युक्तमवधारणं तदर्थत्वात् / नो चेत् अनुक्तसमः तदनुभयस्य व्याघातादेवासंभवाद् / व्यवच्छेदकरणमनर्थकमिति चेत् न, असंभविनोपि केनचिदाशंकितस्य __ अथवा-निषेध वाचक शब्दों का अर्थ यदि सर्वथा निषेध कहा जायेगा तो “मद्य नहीं पीना चाहिए" इत्यादि निषेध करने वाले शब्दों का प्रयोग होने पर मद्य से भिन्न जल, दुग्ध आदि के पीने का विधान नहीं हो सकता अतः सुरा शब्द का प्रयोग करना भी व्यर्थ होगा क्योंकि शब्द तो निषेधात्मक ही हैं अत: दूध आदि के निषेध के समान मद्य का भी निषेध हो जाता है। - यदि कहो कि “सुरापान नहीं करना चाहिए" इसमें सुरापान का ही निषेध किया गया है, दूध आदि के पीने का निषेध भी नहीं है और विधान भी नहीं किया गया है, इसलिए कोई दोष नहीं है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि इस समय क्या आपने शब्द के द्वारा कहीं निषेध होना और दूसरे अर्थ में उदासीन रहना ये शब्द के विषयभूत अर्थ माने हैं, ऐसा होने पर शब्द कहीं विधानात्मक भी होते हैं अतः शब्द निषेधात्मक ही होते हैं, यह एकान्त सिद्ध नहीं होता। उस वाच्यार्थ से अतिरिक्त अन्य स्थल में विधान माना जाए और निषेध नहीं माना जाए, ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि इसमें व्याघात दोष आता है तथा शब्द को निषेधात्मक या विधिस्वरूप मानने पर अन्य का निषेध करने पर स्वार्थ का विधान और स्वार्थ का विधान करने पर अन्य का निषेध भी नहीं हो सकता। (इसलिए एक ही शब्द गौण और प्रधान से विधि और निषेध का द्योतक है। ऐसा सिद्ध होता है) यहाँ कोई कहता है कि सर्व शब्दों के वाच्य विधि और निषेध दोनों विषय हो सकते हैं तथापि अवधारणा के लिए एवकार का प्रयोग करना तो व्यर्थ ही होता है क्योंकि एवकार के अभाव में भी स्वार्थ का विधान करने पर अन्य की निवृत्ति की सिद्धि हो ही जाती है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि उसके यहाँ भी शब्द एक ही साथ स्वार्थ की विधि और दूसरे के निषेध को कहता है तो उन दोनों से भिन्न अनुभय का विच्छेद करेगा। तब नियम (अवधारण) करना युक्त होगा क्योंकि अवधारणा के लिए ही तो ‘एवकार' का प्रयोग है। यदि अनुभय की व्यावृत्ति करना इष्ट नहीं है तो कथित शब्द, नहीं कथित के समान होगा। अर्थात् उभय को कहने वाला शब्द यदि अनुभय का निषेध नहीं करता है तो ऐसे शब्द के कहने से क्या लाभ है ? . “उस उभय से अतिरिक्त अनुभय अर्थका प्राप्त होना तो व्याघात हो जाने से ही असंभव है अर्थात् जो शब्द उभय को कहता है-वह अनुभय को नहीं कह सकता और जो अनुभय को कहता है-वह उभय को नहीं कह सकता? इसलिए अनुभय का विच्छेद करना व्यर्थ है। ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि असंभव वाला भी अर्थ यदि किसी के द्वारा आशंका को प्राप्त हो जाये तो उसका व्यवच्छेद करना योग्य है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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