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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 244 तत्प्रतिपत्तेस्तदर्थमवधारणमयुक्तमित्यन्ये, तेषां विधिरूपतयार्थप्रतिपत्तिः शब्दात् प्रसिद्धा विरुध्यते कथं चान्यव्यावृत्तिस्वरूपं विधिरूपतयान्यव्यावृत्तिशब्दः प्रतिपादयेन्न पुनः सर्वे शब्दाः स्वार्थमिति बुध्यामहे / तस्यापि तदन्यथा वृत्तिप्रतिपादनेनवस्थानं स्वार्थविधिप्रतिपादिता सिद्धिर्वेत्युक्तप्रायं / विधिरूप एव शब्दार्थो नान्यनिवृत्तिरूपो यतस्तत्प्रतिपत्तयेवधारणमित्यपरे, तेषामपि स्ववचनविरोधः / सुरा न पातव्येत्यादिनसहितशब्दप्रयोगात्प्रतिषेधप्रतिपत्ते: स्वयमिष्टेः / केषांचित्प्रतिषेध एव द्वैराश्येन स्थितत्वाद्बोधवत् इति तु येषां मतं घटमानयेत्यादिविधायकशब्दप्रयोगे घटमेव नाघटमानयैव मा जैनाचार्य कहते हैं कि उनका यह कथन (शब्द) निषेधात्मक ही है। इस कथन से शब्द से विधि रूप से होने वाली प्रसिद्ध प्रतिपत्ति विरुद्ध होती है अर्थात् शब्द को सुनकर निवृत्ति तो हो जाएगी परन्तु प्रवृत्ति न हो सकेगी। तथा वह अन्य व्यावृत्तिस्वरूप शब्द विधिरूप से अन्यव्यावृत्तिस्वरूप का प्रतिपादन कैसे करेंगे। अर्थात् अन्यव्यावृत्ति भी विधिरूप ही है उसका कथन कैसे होगा। .. तथा सभी शब्द स्वकीय अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते हैं, इस अयुक्तनियम को बनाने में हम कोई सार नहीं समझते हैं। यदि उस उन व्यावृत्ति शब्द को भी उस अन्य व्यावृत्ति से भिन्न निवृत्ति रूप अर्थ का प्रतिपादन करता है, ऐसा मानोगे तो अनवस्था दोष आएगा क्योंकि सर्व ही शब्द स्वार्थ (स्वकीय) विधि के प्रतिपादक सिद्ध हैं। ऐसा पूर्व में बहुत बार सिद्ध कर चुके हैं। शब्द का अर्थ विधि रूप ही है अन्य निवृत्ति रूप नहीं है इसलिए उस अनिष्ट अर्थ की प्रतिपत्ति (ज्ञान) के लिए वा अवधारणा के लिए एव कार का प्रयोग किया जावे ऐसा कोई कहता है। अर्थात् शब्द विधायक कहता है कि शब्द के उच्चारण से विधि का ही ज्ञान होता है, निषेध का नहीं अत: अवधारणा के लिए शब्द में एवकार का प्रयोग करना उपयुक्त नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि उसका यह कथन स्ववचन बाधित है अर्थात् शब्द विधि को ही कहते हैं निषेध को नहीं, यह कथन स्वकीय वचनों से विरुद्ध है क्योंकि शब्द विधि और निषेध दोनों के प्रतिपादक हैं जैसे “सुरा नहीं पीना चाहिए" इत्यादि नञ् अव्यय से सहित शब्दों के प्रयोग से मद्य नहीं पीना चाहिए ऐसे प्रतिषेध का ज्ञान होना स्वयं शब्दविधि विधायकों ने इष्ट किया है, स्वीकार किया है। इसलिए शब्द विधि रूप ही है, ऐसा एकान्त सिद्ध नहीं हो सकता। किन्हीं के कितने ही शब्द निषेधवाचक ही हैं और कितने शब्दों का अर्थ भावों की विधि करना ही है। इस प्रकार सम्पूर्ण शब्द दो राशियों में विभक्त होकर प्रतिष्ठित हैं। जैसे सम्पूर्ण ज्ञान विधि और निषेधक इन दो भेदों में विभक्त है। इस प्रकार जिनका मत है-उनके मत में “घट को लाओ" इस प्रकार विधान करने वाले शब्दों के प्रयोग में “घट को ही लाओ? घट से भिन्न पदार्थ को मत लाओ" ऐसी अन्य व्यावृत्तियों की प्रतीति नहीं होगी। इसलिए “घट को लाओ" इस शब्द का उच्चारण करना भी व्यर्थ होगा क्योंकि वह नहीं उच्चारण के समान है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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