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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 243 द्योतकत्वात् द्योतकांतरानपेक्षत्वात् प्रदीपादिवत् / नन्वेवमेवेत्यादिशब्दप्रयोगे द्योतकस्याप्येवंशब्दस्यान्यनिवृत्तौ द्योतकांतरस्यैवकारादेरपेक्षणीयस्य भावात् सर्वो द्योतको द्योत्येर्थे द्योतकांतरापेक्ष: स्यात् तथा चानवस्थानान्न क्वचिदवधारणाद्यर्थप्रतिपत्तिरिति चेत् न, एवशब्दादेः स्वार्थे वाचकत्वादन्यनिवृत्तौ द्योतकांतरापेक्षोपपत्तेः / न हि द्योतका एव निपाता: क्वचिद्वाचकानामपि तेषामिष्टत्वात् / द्योतकाश्च भवंति निपाता इत्यत्र चशब्दाद्वाचकाश्चेति व्याख्यानात् / न चैवं सर्वे शब्दा निपातवत्स्वार्थस्य द्योतकत्वेनाम्नाता येन तन्नियमे द्योतकं नापेक्षेरन् / ततो वाचकशब्दप्रयोगे तदनिष्टार्थनिवृत्त्यर्थः श्रेयानेवकारप्रयोग: सर्वशब्दानामन्यव्यावृत्तिवाचकत्वात् / तत एव हैं उनको प्रकाशित करने के लिए दूसरों की अपेक्षा नहीं होती, उसी प्रकार ‘एवकार' आदि अर्थ के द्योतक शब्दों को दूसरों की अपेक्षा नहीं होती है। भावार्थ : एव कार जैसे घटादि से निवृत्ति कराता है वैसे ही अपने को भी अन्य पदार्थों से निवृत्ति करा लेता है। शंका : इस प्रकार नियम करने पर ( द्योतक शब्द को दूसरे द्योतक शब्द की अपेक्षा नहीं है) “इसी प्रकार ही है", और “ऐसा होने पर” “न चैवं' ऐसा नहीं है इत्यादि शब्द के प्रयोग में द्योतक शब्द के भी अन्य निवृत्ति के लिए दूसरे द्योतक एवकार आदि की अपेक्षा रखना संभव है। इसलिए सभी द्योतक शब्द स्वकीय प्रकाशन करने योग्यं अर्थ में दूसरे द्योतकों की अपेक्षा रखने वाले होंगे और दूसरों की अपेक्षा रखने वाले होने पर अनवस्था दोष आएगा अत: कहीं पर भी नियम करना आदि अर्थों की प्रतीति नहीं हो सकेगी। समाधान : जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि 'एव', 'च' आदि शब्द के स्वार्थ में वाचकता होने से अन्य निवृत्ति में द्योतकान्तर (दूसरे) एव आदि द्योतकों की अपेक्षा होती है। निपात द्योतक ही है-ऐसा एकान्त नियम नहीं है क्योंकि कभी कहीं उन ‘एव' 'च' आदि निपातों को वाचक भी माना है अर्थात् नियम, समुच्चय आदि अर्थों को स्वतंत्रता से एवकार चकार आदि शब्द कहते हैं और निपात के द्योतक भी होते हैं। इस प्रकार शब्द सिद्धान्त के अनुसार ‘एव' आदि शब्द वाचक भी हैं अत: शब्द द्योतक और निपातक भी हैं, ऐसा व्याख्यान किया है अर्थात् प्रकृति, प्रत्यय, विकरण आदि शब्द स्वयं अर्थ को संकेत के द्वारा प्रतिपादन करते हैं और घट आदि पदार्थों के अस्तित्व आदि धर्मों के वाचक भी हैं। जो गुण आदि को कहते हैं वे वाचक हैं और जो उन वाचक शब्दों से ही अर्थ को निकालने में सहायक होते हैं वे द्योतक कहलाते हैं। इस प्रकार सभी शब्द निपात के समान स्वकीय अर्थ के द्योतक होते हुए अनादि काल से चले आ रहे हैं, ऐसा नहीं समझना चाहिए, जिससे कि स्वार्थ के नियम करने में द्योतक होकर दूसरे द्योतक शब्दों की अपेक्षा नहीं करते हों अर्थात् निपात द्योतक ही है किन्तु सभी निपात द्योतक ही नहीं हैं अपितु वाचक भी हैं इसलिए वाचक शब्द के प्रयोग में अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति करने के लिए 'एव' कार का प्रयोग श्रेष्ठ है। कोई वादी कहता है कि सभी शब्द अन्य की व्यावृत्ति के वाचक हैं अत: एव कार के प्रयोग के बिना भी शब्द के द्वारा अन्य व्यावृत्ति की प्रतिपत्ति (दूसरे के निषेध का ज्ञान) हो जाती है इसलिए अनिष्ट की निवृत्ति के लिए अवधारणा करना (एवकार का प्रयोग करना) युक्तिसंगत नहीं है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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