________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 242 ननु गौरेवेत्यादिषु सत्यप्यवधारणे निष्टार्थनिवृत्तेरभावादसत्यपि . चैवकारे भावान्नावधारणसाध्यान्यनिवृत्तिस्तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावात् / न ह्येवकारोनिष्टार्थनिवृत्तिं कुर्वन्नेवकारांतरमपेक्षते अनवस्थाप्रसंगात् / तत्प्रयोगे प्रकरणादिभ्योऽनिष्टार्थनिवृत्तिरयुक्ता सर्वशब्दप्रयोगे तत एव तत्प्रसक्तेस्ततो न तदर्थमवधारणं कर्तव्यमित्येके, तेपि न शब्दाम्नायं विंदति / तत्र हि ये शब्दाः स्वार्थमात्रेनवधारिते संकेतितास्ते तदवधारणविवक्षायामेवकारमपेक्षते तत्समुच्चयादिविवक्षायां तु चकारादिशब्दं। न चैवमेवकारादीनामवधारणाद्यर्थं ब्रुवाणानां तदन्यनिवृत्तावेवकारांतराद्यपेक्षा संभवति यतोनवस्था तेषां स्वयं शंका : गाय ही है, इत्यादि वाक्यों में एवकार द्वारा अवधारणा करने पर भी, अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति नहीं होती है। कहीं पर एवकार के नहीं होने पर भी अन्य अनिष्ट अर्थ से निवृत्ति हो जाती है अर्थात् गाय ही है या गाय है इन दोनों वाक्यों में कोई अर्थ भेद नहीं है- “गाय ही है" इस वाक्य का जो वाच्यार्थ है, वही अर्थ “गाय है" इसी का है। “मोहन व्याकरण पढ़ता है" इसमें एवकार नहीं लगाने पर भी मोहन व्याकरण ही पढ़ता है, अन्य विषय को नहीं पढ़ता है, यह सिद्ध हो ही जाता है इसलिए अन्य पदार्थों से निवृत्त होना एवकार के अवधारण से ही साधने योग्य कार्य नहीं है क्योंकि अन्य निवृत्ति का ‘एव' के साथ / अन्वय, व्यतिरेक का अभाव है। अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति को करने वाला एवकार दूसरे एवकार की अपेक्षा नहीं करता है, अन्यथा अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। एक धर्म को सिद्ध करने के लिए एवकार की आवश्यकता हो और एवकार को सिद्ध करने के लिए दूसरे एवकार की, इस प्रकार अनवस्था दोष आयेगा। . अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति के लिए भी ‘एव' कार का प्रयोग करना उपयुक्त नहीं है क्योंकि अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति तो प्रकरण, अवसर आदि से हो ही जाती है। यदि अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति के लिए एव का प्रयोग करेंगे तो प्रकरण आदि से अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति होना अयुक्त होगा। तथा सम्पूर्ण शब्दों के प्रयोग में उस ‘एव' कार से ही उस अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति का प्रसंग आयेगा। इसलिए उस अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति के लिए अवधारण (एवकार का प्रयोग) नहीं करना चाहिए। इस प्रकार कोई कहता है। जैनाचार्य उस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि “इस प्रकार कहने वाले वादी शब्द की आम्नाय को नहीं जानते हैं। क्योंकि जो शब्द शब्दों में नियमित नहीं किये गये हैं, स्वकीय सामान्य अर्थ के प्रतिपादन करने में संकेत ग्रहण किये हुए हैं वे शब्द तो उस अर्थ को नियमित करने की विवक्षा में एवकार की अपेक्षा करते ही हैं। अर्थात् दूध शब्द का सामान्य अर्थ 'दूध है', और हमें दूध ही अभीष्ट है तो “दूध ही है" ऐसा कहना पड़ेगा। ___ तथा जब कभी दूध, जल आदि समुच्चय या समाहार आदि की विवक्षा होती है तब ‘चकार' शब्द लगाना चाहिए। (जैसे दुग्धं जलंच) तथा विकल्प अर्थ की विवक्षा होने पर वा शब्द जोड़ना चाहिए अर्थात् अवधारण, समुच्चय, विकल्प आदि अर्थों में एवकार, चकार, वाकार आदि शब्द का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार कहना भी उचित नहीं है कि अवधारणा, समुच्चय, विकल्प आदि अर्थों को कहने वाले के एवकार, चकार, वाकार आदि को भी अन्य निवृत्ति, समुच्चय आदि करने में दूसरे एवकार, चकार आदिकों की अपेक्षा होना संभव हो सकता है क्योंकि जिससे अनवस्था दोष आता है वे एवकार आदि निपात अन्य अर्थ के द्योतक हैं और स्वयं अपने-अपने अर्थ के भी द्योतक हैं। जिस प्रकार दीपक आदि स्वपर प्रकाशक