________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 241 वक्तव्यत्वं तदपि न शेषभंगेभ्यो भिद्यते, तेषामेव वक्तव्यत्वात् / ततो नातिव्यापिनी सप्तभंगी नाप्यव्यापिन्यसंभविनी वा यतः प्रेक्षावद्भिर्नाश्रीयते / ननु च सप्तसु वचनविकल्पेष्वन्यतमेनानंतधर्मात्मकस्य वस्तुनः प्रधानगुणभावेन प्रतिपादनाच्छेषवचनविकल्पानामानर्थक्यादनाश्रयणीयत्वमेवेति चेत् न, तेष्वपरापरधर्मप्राधान्येन शेषधर्मगुणभावेन च वस्तुनः प्रतिपत्तेः साफल्यात्। तत्रास्त्येव सर्वमित्यादिवाक्येऽवधारणं किमर्थमित्याह;वाक्येवधारणं तावदनिष्टार्थनिवृत्तये / कर्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात्तस्य कुत्रचित् // 53 // किये गये वक्तव्य और अवक्तव्य का वक्तव्यपना है, वह वक्तव्यपना भी शेष भंगों से भिन्न नहीं है क्योंकि छह भंग वक्तव्य (शब्द के द्वारा कथनीय) हैं और चतुर्थ भंग (अवक्तव्य) भी शब्द के द्वारा ही कहा गया है अर्थात् अस्ति कहो वा अस्ति शब्द के द्वारा कहने योग्य कहो, एक ही अर्थ है। इसलिए इस सप्तभंगी में अतिव्याप्ति दोष नहीं है क्योंकि भंग सात ही हैं अधिक नहीं हो सकते। इसमें अव्याप्ति दोष भी नहीं है, क्योंकि दो तीन भंगों से कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती। इसमें असंभव दोष भी नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु में सात भंग पाये जाते हैं। सदोष होने से बुद्धिमानों के द्वारा आदरणीय न हों ऐसा भी नहीं है अर्थात् सप्तभंगी निर्दोष है और बुद्धिमानों के द्वारा आदरणीय है। उनको सप्तभंगी का सहारा लेना चाहिए (सप्तभंग को स्वीकार करना चाहिए)। शंका : सात प्रकार के वचन विकल्पों में किसी एक विकल्प के द्वारा अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रधानता या गौणता से प्रतिपादन हो जाता है। इसलिए शेष छह भेदों का कथन करना व्यर्थ होने से सप्तभंगी अनाश्रयणीय है। समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि उन सप्तभंगों में अन्य धर्मों की प्रधानता से और शेष धर्मों की गौणता से प्रतीति होती है अतः सर्व धर्मों का कथन करना सफल है। अथवा अस्ति आदि एक धर्म के कथन से शेष छह धर्म अविनाभाव सम्बन्ध से गर्भित हो जाते हैं। जब एक धर्म से छहों का ज्ञान हो जाता है तब सात धर्म अवश्य सिद्ध हो जाते हैं। उन सप्तभंगों में “अस्त्येव सर्वं" "नास्त्येव सर्व" सभी पदार्थ किसी अपेक्षा से हैं ही अर्थात् अस्ति स्वरूप ही हैं तथा किसी अपेक्षा से सर्व वस्तुएँ नहीं हैं नास्ति स्वरूप' ही हैं। इत्यादि वाक्यों में एवंकार का ग्रहण किस नियम के लिए है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं: . अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति के लिए वाक्य में ‘एव' लगाकर अवधारणा करनी चाहिए। अन्यथा (अवधारणा नहीं करने पर) कहीं-कहीं वाक्य नहीं कहे हुए के समान हो जाता है अर्थात् यह मानव पानी ही पीता है-ऐसा कहने पर अन्य वस्तु के खाने का निषेध हो जाता है। एव की अवधारणा के बिना अन्य वस्तुओं की निवृत्ति नहीं हो सकती॥५३॥ अतः वस्तु स्वस्वरूप की अपेक्षा अस्ति ही है और पररूप की अपेक्षा नास्ति ही है। ऐसी अवधारणा करनी चाहिए।