________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 240 तत्प्रतिवचनानामप्येकादशानामपुनरुक्तत्वसिद्धेरष्टादशभंगास्तथा संयोगे च भंगांतराणि सिद्ध्येयुस्तथा तत्संयोगेपि ततो भंगांतराणीति कथं शतभंगी निषिध्यते ? द्विभंगीप्रसंगादिति केचित् , तदयुक्तं / अस्तित्वस्य नास्तित्वस्य तदवक्तव्यस्य चानेकस्यैकत्र वस्तुन्यभावात् नाना वस्तुषु सप्तभंग्याः स्वयमनिष्टेः / यत्पुनर्जीववस्तुनि जीवत्वेनास्तित्वमेवाजीवत्वेन च नास्तित्वं मुक्तत्वेनापरममुक्तत्वेन चेत्याधनंतस्वपरपर्यायापेक्षयानेकं तत्संभवति वस्तुनोऽनंतपर्यायात्मकत्वादिति वचनं तदपि न सप्तभंगीविघातकृत्, जीवत्वाजीवत्वापेक्षाभ्यामिवास्तिनास्तित्वाभ्यां मुक्तत्वामुक्तत्वाद्यपेक्षाभ्यामपि पृथक् सप्तभंगीकल्पनात् विवक्षितवक्तव्यत्वावक्तव्यत्वाभ्यामपि सप्तभंगी प्रकल्पमानान्यैवानेन प्रतिपादिता / प्रकृताभ्यामेवं धर्माभ्यां सहार्पिताभ्यामवक्तव्यत्वस्यानेकस्यासंभवादेकत्र तत्प्रकल्पनया भंगांतरानुपपत्तेः / यत्तु ताभ्यामेवासहार्पिताभ्यां से दो भंगों का संयोग करके बनाये गये ग्यारह प्रश्न पुनरुक्त नहीं हैं, इनमें अपुनरुक्तपना सिद्ध है। क्योंकि ये पूर्व के सात भंगों में पूछे नहीं गये हैं अत: इन प्रत्युत्तर में दिये गये ग्यारह भंगों के अपुनरुक्तता सिद्ध है। इस प्रकार सात और ग्यारह को मिलाने पर अठारह भंग हो जाते हैं तथा इन अठारह के भी संयोग करने पर अनेक भंग सिद्ध हो सकते हैं तथा उनका भी संयोग करने पर भंगों की सन्तान बढ़ती जायेगी अत: शत (सैकड़ों) भंगी का निषेध कैसे हो सकता है। यदि शतभंगी का निषेध करेंगे तो पूर्व में कथित प्रथम दो (अस्ति, नास्ति) भंग का ही प्रसंग आयेगा। अर्थात् दो ही भंग रहेंगे सात नहीं। ऐसा कोई कह रहा है? जैनाचार्य कहते हैं- सप्तभंगी को छोड़कर अधिक भंग का कथन करना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि अस्तित्व नास्तित्व तथा उन दोनों का यौगपद्य होने पर अवक्तव्य ये तीन धर्म एक वस्तु में एक-एक ही रहते हैं। एक वस्तु में अनेक अस्तित्व आदि का अभाव पाया जाता है अर्थात् अनेक वस्तुओं में यद्यपि अनेक अस्तित्व, अनेक नास्तित्व रह सकते हैं, प्रश्न के अनुसार अविरोध रूप से विधि और निषेध की सद्भूत कल्पना सप्तभंगी है। अनेक वस्तओं में सप्तभंपी होना हम स्वयं इष्ट नहीं करते हैं। जीव वस्तु में जीवत्व रूप से अस्तित्व, अजीव रूप से नास्तित्व है। मुक्त स्वरूप से अस्तित्व और अमुक्तत्व रूप से अपर नास्तित्व है। इस प्रकार अनन्त स्वपर पर्याय अपेक्षा से अस्तित्व नास्तित्व आदि अनेक धर्म एक वस्तु में संभव है क्योंकि “वस्तु अनेक धर्मात्मक है" "अनन्तपर्यायात्मक है" यह ग्रन्थकार का वचन है अतः सप्तभंगी आत्मक वचन व्यवस्था के विघातक नहीं हैं। जिस प्रकार एक जीव वस्तु में जीवत्व, अजीवत्व की अपेक्षा अस्तित्व, नास्तित्व के द्वारा सप्तभंग सिद्ध होते हैं। अर्थात् जीवत्व की अपेक्षा अस्तित्व और अजीवत्व की अपेक्षा नास्तित्व है। उसी प्रकार मुक्तत्व, संसारीत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व आदि की अपेक्षा सप्तभंग की कल्पना की जाती है। इस उक्त कथन से "विवक्षित वक्तव्य, अवक्तव्य, उभय आदि की भी सप्त भंगी कर लेना चाहिए" ऐसा प्रतिपादन किया है। इस प्रकरण में प्राप्त वक्तव्य और अवक्तव्य धर्मों के साथ कथन करने की विवक्षा होने से एक ही चतुर्थ अवक्तव्य धर्म बनेगा। उसमें अनेक अवक्तव्य धर्मों की असंभवता है। इसलिए एक पर्याय में अनेक अवक्तव्य धर्मों की कल्पना करके दूसरे भंगों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार जो क्रम से विवक्षित