SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 237 इति युक्तिसिद्धमस्तित्वादिधर्मसप्तकं कुतश्चित्प्रतिपत्तुर्विप्रतिपत्तिसप्तकं जनयेत् / जिज्ञासायाः सप्तविधत्वं तच्च प्रश्नसप्तविधत्वं तदपि वचनसप्तविधत्तवमिति सूक्ता प्रश्नवशादेकत्र सप्तभंगी, भङ्गान्तरनिमित्तस्य प्रश्नांतरस्यासंभवात् / तदभावश्च जिज्ञासांतरासंभवात् तदसंभवोपि विप्रतिपत्त्यंतरायोगात् तदयोगोपि विधिप्रतिषेधविकल्पनया धर्मांतरस्य वस्तुन्यविरुद्धस्यानुपपत्तेः, तदनुपपत्तावपि प्रश्नांतरस्याप्रवर्तमानस्यासंबंधप्रलापमात्रतया प्रतिवचनानर्हत्वात् / तद्धि प्रश्नांतरं व्यस्तास्तित्वनास्तित्वविषयं समस्ततद्विषयं वा ? प्रथमपक्षे प्रधानभावेन प्रथमद्वितीयप्रश्नावेव गुणभावेन तु सत्त्वस्य द्वितीयप्रश्नः स्यादसत्त्वस्य प्रथमः / समस्तास्तित्वनास्तित्वविषये तु प्रश्नांतरं क्रमतस्तृतीयः सह चतुर्थः प्रथमचतुर्थसमुदायविषयः पंचम: द्वितीयचतुर्थसमुदायविषयः षष्ठस्तृतीयचतुर्थसमुदायविषयः सप्तम इति सप्तस्वेवांतर्भवति / प्रथमतृतीययोः सिद्ध करता है। इसलिए अस्तित्व आदि सातों ही भंग एक वस्तु में युक्तिसिद्ध हैं। युक्तियों से सिद्ध वे धर्म ज्ञाता पुरुष के किसी कारणवश सात प्रकार के विवादों को उत्पन्न करा देते हैं तथा वे सात प्रकार के विवाद जानने के इच्छुक मानव के हृदय में सात प्रकार की जिज्ञासाओं को प्रकट करते हैं। तथा सात प्रकार की जिज्ञासा सात प्रकार के प्रतिवचनों की उत्पादक होती है अत: एक वस्तुधर्म में प्रश्न के कारण सप्तभंगी का होना समीचीन कहा है। सप्तभंग के अतिरिक्त भंगान्तर के निमित्तभूत प्रश्न की असंभवता है और प्रश्न के असंभव होने से जिज्ञासा (जानने की इच्छाओं) के अतिरिक्त की असंभवता है अर्थात् वस्तु के जानने की जिज्ञासा सात प्रकार की है, अधिक नहीं। जिज्ञासा के अभाव में विवादान्तर का अयोग और विवाद का अयोग भी एक वस्तु में विधि और निषेध की विविध कल्पनाओं से अविरुद्ध धर्मान्तरों की अनुपपत्ति है। सात धर्मों से अधिक धर्मों की अनुपपत्ति होने पर सात प्रश्नों से अतिरिक्त अन्य प्रश्नों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती और प्रश्न के सम्बन्ध बिना बोलना प्रलाप मात्र होने से प्रत्युत्तर देने योग्य नहीं है। ___ इस विषय में जैनाचार्य प्रश्न करते हैं कि वे सप्त भंगी से भिन्न प्रश्न पृथक्-पृथक् अस्तित्व और नास्तित्व का विषय करने वाले हैं ? अथवा संमिश्रित, अस्तित्व, नास्तित्व का विषय करते हैं ? प्रथम पक्ष में प्रधान रूप से अस्तित्व, नास्तित्व के विषय में प्रश्न करने पर तो प्रथम और द्वितीय प्रश्न हो जाएंगे अर्थात् स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्ति और परचतुष्टय की अपेक्षा नास्ति ही सिद्ध होती है यदि अस्तित्व को गौण करके नास्तित्व का प्रधानता से कथन किया जाये तो द्वितीय परचतुष्टय की अपेक्षा नास्तित्व का कथन होता है तथा असत्व (नास्ति) को गौण करके कथन किया जाता है तब प्रथम पक्ष (अस्तित्व) का कथन होता .. द्वितीय पक्ष के अनुसार सम्मिश्रित अस्ति नास्ति का विषय करने वाला कहेंगे तो क्रम से दोनों को विषय करने वाला प्रश्नान्तर तीसरा प्रश्न (अस्ति नास्तित्व) हुआ। यदि अस्ति और नास्तित्व को एक साथ विषय करना कहेंगे तो चतुर्थ अवक्तव्य भंग होगा। प्रथम चतुर्थ के साथ कहेंगे तो पाँचवाँ भंग (अस्ति अवक्तव्य) होगा। यदि द्वितीय और चतुर्थ के समुदाय का विषय करने वाला कहेंगे तो छठा (नास्त्यवक्तव्य) भंग होता है। चतुर्थ और तृतीय समुदाय का विषय करना कहेंगे तो सप्तम (अस्तिनास्त्यवक्तव्य) भंग होगा। इस प्रकार सारे भंग सात भंगों में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं (पृथक् भंग नहीं हैं)।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy