________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 236 सर्वदा सर्वस्याभावप्रसंगाच्च / तत्र परमस्य वस्तुनोनाद्यनंत: कालोपरस्य च जीवादिवस्तुनः सर्वदा विच्छेदाभावात् तत्र तदस्ति न परकालेन्यथा कल्पिते क्षणमात्रादौ जीवविशेषरूपं तु मानुषादिवस्तु स्वायुः प्रमाणस्वकालेस्ति न परायुःप्रमाणे पुद्गलविशेषरूपं च पृथिव्यादि तथा परिणामस्थितिनिमित्ते स्वकालेस्ति न तद्विपरीते तदा तस्यान्यवस्तुविशेषत्वेनभावात्। नन्वेवं युगपदेकत्र वस्तुनि सत्त्वासत्त्वद्वयस्य प्रसिद्धेस्तदेव प्रतिषेध्येनाविनाभावि साध्यं न तु केवलमस्तित्वं नास्तित्वादि वा तस्य तथाभूतस्यासंभवादिति चेन्न, नयोपनीतस्य केवलास्तित्वादेरपि भावात् सिद्धे वस्तुन्येकत्रास्तित्वादौ नानाधर्मे वादिप्रतिवादिनोः प्रसिद्धो धर्मस्तदप्रसिद्धेन धर्मेणाविनाभावी साध्यत अन्यथा काल के संकर होने का तथा सदा सर्व वस्तु के अभाव का प्रसंग आएगा, अर्थात् जब किसी का स्वकाल नहीं है और परकाल से व्यावृत्ति नहीं है, अत: नियत काल का अभाव होने से सभी वस्तुओं का अभाव हो जायेगा। वा वृद्ध, बालक, पुद्गलादि का एक काल होने से सर्व एक रूप हो जायेंगे। उस काल के प्रकरण में परमसत् वस्तु के सर्वदा विच्छेद का अभाव होने से स्वकाल अनादि अनन्त है और उस परम सत् में व्याप्य अपर (अवान्तर सत्ता रूप) जीवादि वस्तु का भी सर्वदा विच्छेद का अभाव होने से स्वकाल अनादि अनन्त है अर्थात् वस्तु भूत, भविष्यत् और वर्तमान रूप त्रिकालवर्ती अनन्त परिणाम स्वरूप स्वकीय गुणांश में ही रहती है। परगुणांशरूप पर काल में नहीं रहती है अन्यथा कल्पित क्षण मात्र आदि काल में यदि द्रव्य रूप से वस्तु की स्थिति मानी जायेगी तो सत् का विनाश और असत् का उत्पाद रूप महान् दोष उत्पन्न होगा। जीव द्रव्य की विशेष (पर्याय) रूप मनुष्य, देव, नारकी, तिर्यंचादि रूप वस्तुओं का स्वकाल स्वकीय आयु प्रमाण है, अर्थात् मनुष्य और तिर्यञ्च पर्याय का उत्कृष्ट काल, अन्तर्मुहूर्त से लेकर तीन पल्यप्रमाण है। देव और नारकियों का दस हजार वर्ष से तैंतीस सागर पर्यन्त है / देवों के समान नारकियों और मनुष्यों के समान तिर्यञ्च्चों का काल जानना चाहिए। दूसरों की आयु प्रमाण तिर्यञ्च आदि जीव की पर्यायों का काल नहीं है। अथवा पुद्गल स्कन्ध की पृथ्वी आदि स्वकीय पर्याय की स्थिति में निमित्त कारण अपने व्यवहार काल में ही हैं, उससे विपरीत न्यूनाधिक काल में नहीं है, क्योंकि उस समय उसका अन्य वस्तुओं के विशेष (पर्याय) रूप से परिणमन हो रहा है, अर्थात् स्वकाल में वस्तु का रहना और परकाल में नहीं रहना, यही वस्तु का वस्तुत्व है। शंका : एक वस्तु में एक समय में एक साथ सत्त्व और असत्त्व इन दोनों के अस्तित्व की प्रसिद्धि है, तब तो वह उभय ही अपने प्रतिषेध्य अवक्तव्य आदि के साथ अविनाभावी साध्य करना चाहिए। केवल अस्तित्व या केवल नास्तित्व वा अवक्तव्य को साध्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि अकेले अस्तित्व आदि का उस प्रकार के प्रतिषेध्यों के साथ रहना संभव नहीं है अर्थात् दो धर्म एक साथ रहेंगे। अकेले का मिलना असंभव है। जैनाचार्य कहते हैं-ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि नयों के द्वारा ज्ञात (जाने गये) अकेले अस्तित्व और नास्तित्व का भी सद्भाव पाया जाता है। एक वस्तु में अस्तित्व, नास्तित्व आदि अनेक धर्मों के सिद्ध हो जाने पर वादी और प्रतिवादी के प्रसिद्ध एक धर्म दूसरे अप्रसिद्ध धर्म के साथ अविनाभाव को