________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 235 नास्तीत्यपि न विरुध्यते स्वपरक्षेत्रप्राप्तिपरिहाराभ्यां वस्तुनो वस्तुत्वसिद्धेरन्यथा क्षेत्रसंकरप्रसंगात् / सर्वस्याक्षेत्रत्वापत्तेश्च / न चैतत्साधीयः प्रतीतिविरोधात् / तत्र परमस्य वस्तुनः स्वात्मैव क्षेत्रं तस्य सर्वद्रव्यपर्यायव्यापित्वात् तद्व्यतिरिक्तस्य क्षेत्रस्याभावात् तदपरस्य वस्तुनो गगनस्यानेन स्वात्मैव क्षेत्रमित्युक्तं तस्यानंत्यात् क्षेत्रांतराघटनात् / जीवपुद्गलधर्माधर्मकालवस्तूनां तु निश्चयनयात् स्वात्मा व्यवहारनयादाकाशं क्षेत्रं ततोप्यपरस्य वस्तुनो जीवादिभेदरूपस्य यथायोगं पृथिव्यादि क्षेत्रं प्रत्येयं / नचैवं स्वरूपात्स्वद्रव्याद्वा क्षेत्रस्यान्यता न स्यात् तद्व्यपदेशहेतोः परिणामविशेषस्य ततोन्यत्वेन प्रतीतेरविरोधात् / तथा स्वकालेस्ति परकाले नास्तीत्यपि न विरुद्धं स्वपरकालग्रहणपरित्यागाभ्यां वस्तुनस्तत्त्वप्रसिद्धेरन्यथा कालसांकर्यप्रसंगात् / ____स्वद्रव्य में अस्ति और पर द्रव्य में नास्तित्व के समान स्वक्षेत्र में अस्तित्व और परक्षेत्र में नास्तित्व भी विरुद्ध नहीं है क्योंकि स्वक्षेत्र की प्राप्ति और पर क्षेत्र के परिहार के द्वारा ही वस्तु के वस्तुत्व की सिद्धि होती है। अन्यथा (स्वक्षेत्र की अपेक्षा अस्तित्व और पर क्षेत्र की अपेक्षा नास्तित्व नहीं मानने पर) क्षेत्रसंकर का प्रसंग आता है, अथवा सर्व पदार्थों के अक्षेत्रत्व का प्रसंग आएगा, अर्थात् पर का क्षेत्र जब स्वक्षेत्र में ही प्रविष्ट हो जाएगा ? तब पर क्षेत्र का अभाव होगा तो स्वक्षेत्र का भी अभाव हो जाएगा और स्व पर क्षेत्र दोनों का अभाव हो जाने से अक्षेत्र का प्रसंग आएगा, परन्तु यह क्षेत्ररहितपना प्रशस्त नहीं है, क्योंकि क्षेत्ररहितपना प्रतीति से विरुद्ध है। . इस क्षेत्र प्रकरण में परम महा सत्तारूप वस्तु का स्वकीय आत्मा ही अपना क्षेत्र है क्योंकि वह परम वस्तु सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों में व्यापक रहता है, उस स्वात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई क्षेत्र नहीं है, दूसरे क्षेत्र का अभाव है। वास्तव में, स्वकीय आत्मा ही अपना क्षेत्र हो सकता है। घर, ग्राम, देश, आकाश आदि तो व्यवहार से कल्पित क्षेत्र है। इस कथन से यह सिद्ध होता है कि आकाशरूप वस्तु का क्षेत्र भी स्वात्मा (आकाश) ही कहा है क्योंकि आकाश अनन्त है, वह सर्वत्र व्याप्त है अत: आकाश का क्षेत्र आकाश को छोड़कर दूसरा घटित नहीं होता है और जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल रूप वस्तु का निश्चय नय से स्वात्मा. (अपना स्वरूप) ही क्षेत्र है और व्यवहार नय से लोकाकाश क्षेत्र है, उससे भिन्न जीवादिक के व्याप्य भेद, प्रभेद रूप तिर्यञ्च, मानव, घर, घट, जल आदि पदार्थों का क्षेत्र यथायोग्य पृथ्वी आदि जानना चाहिए। इस प्रकार स्वस्वरूप, स्वद्रव्य से क्षेत्र की भिन्नता नहीं है, ऐसा भी नहीं समझना चाहिए क्योंकि वस्तु में उन-उन भाव स्वरूप स्वद्रव्य और स्व क्षेत्रों के व्यपदेश में कारणभूत परिणाम विशेष की परस्पर पृथक् रूप से प्रतीति होती है, अतः इसमें कोई विरोध नहीं है। भावार्थ : जैसे साढ़े तीन हाथ प्रमाण मानव अपने पूर्ण देश, देशांश, गुण-गुणांश में तादात्म्य सम्बन्ध से व्यापक है, वही उसका स्वरूप है, अनन्त गुणों का पिण्ड रूप देश उसका स्वद्रव्य है। साढ़े तीन हाथ के विष्कंभ वाला देशांश स्वरूप (प्रदेश के रहने का स्थान) स्व क्षेत्र है, तथा ऊर्वांश कल्पना रूप गुणांश पर्यायों का पिण्ड ही स्वकाल है एवं वर्तमान के परिणाम अविभागी प्रतिच्छेद आदि स्व के भाव . उसी प्रकार वस्तु स्वकीय काल में अस्ति रूप है और परकाल में नास्ति स्वरूप है, यह भी विरुद्ध नहीं है। क्योंकि स्वकाल के ग्रहण और परकाल के त्याग (हान) से ही वस्तु का वस्तुत्व सिद्ध होता है।