________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 234 द्रव्यमनंतपर्यायमविरुद्धमुक्तमिति चेत् , जीवादीनामनंतद्रव्याणामनिराकरणादिति ब्रूमः / सन्मानं हि शुद्ध द्रव्यं तेषामनंतभेदानां व्यापकमेकं तदभावे कथमात्मानं लभते / कथमिदानीं तदेव स्वद्रव्येस्ति परद्रव्ये नास्तीति सिद्ध्येत् / न हि तस्य स्वद्रव्यमस्ति पर्यायत्वप्रसंगाद्यतस्तत्रास्तित्वं / नापि द्रव्यांतरं यत्र नास्तित्वमिति चेन्न कथंचित् , न हि सन्मानं स्वद्रव्येस्ति परद्रव्ये नास्तीति निगद्यते / किं तर्हि, वस्तु / न च तत्संग्रहनयपरिच्छेचं वस्तु वस्त्वेकदेशत्वात् पर्यायवत् / ततो यथा जीववस्तु पुद्गलादिवस्तु वा स्वद्रव्ये जीवत्वेन्वयिनि पुद्गलादित्वे वा पर्याये च स्वभावे ज्ञानादौ रूपादौ वास्ति न परद्रव्ये परस्वरूपे वा तथा परमं वस्तु सत्त्वमात्रे स्वद्रव्ये स्वपर्याये च जीवादिभेदप्रभेदेस्ति न परिकल्पिते सर्वथैकांते कथंचिदिति निरवद्यं तथा स्वक्षेत्रेस्ति परक्षेत्रे “एक द्रव्य अनन्त पर्याय युक्त है, यह अविरुद्ध कैसे है ? ऐसा प्रश्न होने पर जैनाचार्य कहते हैं कि जीवादि अनन्त द्रव्यों का जैन सिद्धान्त में निराकरण नहीं है, अर्थात् एक द्रव्य की अनन्त पर्यायें हो सकती हैं, परन्तु एक द्रव्य की पर्याय अनन्त द्रव्य नहीं हो सकती। इसलिए जीवादि द्रव्यों के अभाव में अनन्त भेदों में व्यापक शुद्ध सत्तामात्र एक द्रव्य आत्मलाभ कैसे कर सकता है ? अर्थात् अद्वैतवादियों के द्वारा स्वीकृत विधिस्वरूप सत्तामात्र ब्रह्म तत्त्व अवान्तर सत्ता वाले अनेक द्रव्यों को नहीं मानने पर व्यापक सिद्ध कैसे हो सकता है? अद्वैतवादी -“प्रत्येक द्रव्य स्वकीय स्वरूप में अस्तित्वरूप है और पर द्रव्य में नास्ति स्वरूप है, यह समय (सिद्धान्त) कैसे सिद्ध हो सकता है ? क्योंकि पर्यायत्व का प्रसंग होने से द्रव्य के स्वकीय द्रव्य नहीं हैं जिससे स्वकीय द्रव्य का अस्तित्व सिद्ध हो सके ? उस द्रव्य से भिन्न कोई द्रव्यान्तर ही नहीं है अत: पर द्रव्य में नास्तित्व कैसे हो सकता है ?" जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार अद्वैतवादी का कथन भी समीचीन नहीं है, क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त में सन्मात्र द्रव्य को कथंचित् स्वद्रव्य में अस्तिस्वरूप और परद्रव्य में नास्ति स्वरूप कहा जाता है। केवल शुद्ध सन्मात्रद्रव्य “स्वद्रव्य में अस्ति और परद्रव्य में नास्ति', नहीं मानते हैं ? शंका : तो आप वस्तु का स्वरूप कैसा मानते हैं ? समाधान : पर्यायों के समान वस्तु के एकदेश को जानने वाले संग्रह नय से सम्पूर्ण वस्तु परिच्छेद्य नहीं है, परन्तु अन्य पर्यायों के समान वस्तु के एकदेश को जानता है इसलिए जिस प्रकार जीववस्तु और पुद्गल, धर्मादि वस्तुएँ अन्वय से रहने वाले जीवत्व या पुद्गलत्व आदि स्वकीय द्रव्य में विद्यमान हैं, अथवा अपने स्वभाव भूत ज्ञानादि और रूपादि में भी तथा नर-नारकादि जीव की पर्यायों में जीवत्व और घटादि पर्यायों में पुद्गलत्व विद्यमान है परन्तु प्रत्येक द्रव्य परस्वरूप और परपर्यायों में विद्यमान नहीं है अर्थात् जीवत्व पुद्गल के रूप रस आदि में नहीं है, और रूप रस आदि जीवत्व में नहीं हैं, उसी प्रकार कालादि धर्मादि में नहीं और धर्मादि में कालादि नहीं हैं, तथा परम व्यापक वस्तु स्वकीय सत्ता मात्र द्रव्य में और जीव पुद्गल देव घट आदि भेद प्रभेद रूप अपने अंश स्वरूप पर्यायों में विद्यमान है परन्तु परकल्पित सर्वथा एकान्त रूप आत्मा, स्वलक्षण आदि द्रव्य और क्षणिक नील आदि पर्यायों में किसी भी प्रकार से विद्यमान नहीं है। इस प्रकार जैन सिद्धान्त के अनुसार गुण पर्यायात्मक अस्ति नास्ति रूप वस्तु का स्वभाव निर्दोष सिद्ध है। अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मों के बिना वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती।