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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 233 स्वरूपचतुष्टयाच्चास्त्यंवक्तव्यत्वस्य ताभ्यां पररूपादिचतष्टयाच्च नास्त्यवक्तव्यत्वस्य क्रमाक्रमार्पिताभ्यां ताभ्यामुभयावक्तव्यत्वस्य च प्रसिद्धेविरोधाभावाच्च धर्मिणः साधनस्य च प्रसिद्धेः / न हि स्वरूपेस्ति वस्तु न पररूपेस्तीति विरुध्यते, स्वपररूपादानापोहनव्यवस्थापाद्यत्वाद्वस्तुत्वस्य, स्वरूपोपादानवत् पररूपोपादाने सर्वथा स्वपरविभागाभावप्रसंगात् / स चायुक्तः, पुरुषाद्वैतादेरपि पररूपादपोढस्य तथाभावोपपत्तेरन्यथा द्वैतरूपतयापि तद्भावसिद्धेरेकानेकात्मवस्तुनो निषेधुमशक्तेः पररूपापोहनवत्स्वरूपापोहने तु निरूपाख्यत्वस्य प्रसंगात् / तच्चानुपपन्नं / ग्राह्यग्राहकभावादिशून्यस्यापि संविन्मात्रत्वस्य स्वरूपोपादानादेव तथा व्यवस्थापनादन्यथा प्रतिषेधात् / तथा सर्वं वस्तु स्वद्रव्ये स्ति न परद्रव्ये तस्य स्वपरद्रव्यस्वीकारतिरस्कारव्यवस्थितिसाध्यत्वात् / स्वद्रव्यवत् परद्रव्यस्य स्वीकारे द्रव्याद्वैतप्रसक्तेः स्वपरद्रव्यविभागाभावात् / तच्च विरुद्धं / जीवपुद्गलादिद्रव्याणां भिन्नलक्षणानां प्रसिद्धः / कथमेकं वह अवक्तव्य है और जो अवक्तव्य है वह अस्ति नास्ति रूप नहीं है। इस प्रकार अस्ति नास्ति आदि परस्पर विरोधी हैं, अविनाभावी नहीं हैं इसलिए एक वस्तु में अवक्तव्य आदि धर्मी की और विशेषण रूप साधन की सिद्धि नहीं है, असिद्धि है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप चतुष्टय की अपेक्षा अस्तित्व की और पररूप द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा नास्तित्व की सिद्धि हो जाने पर क्रम से उनके उभय रूप नास्तित्व और अस्तित्व का और सह अवक्तव्य का कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार स्वरूप चतुष्टय से अस्तित्व के साथ (अस्त्यवक्तव्य), पर रूपादि चतुष्टय के साथ नास्ति अवक्तव्य का (नास्त्यवक्तव्य), स्व-पर चतुष्टय के साथ अस्ति नास्ति अवक्तव्य के विरोध का अभाव प्रसिद्ध ही है। ये सातों धर्म परस्पर विरोध रहित हैं अत: पक्ष और हेतु की प्रसिद्धि है। स्वस्वरूप से वस्तु अस्ति स्वरूप है और पर रूप से वस्तु नास्ति स्वरूप है, इस कथन में कोई विरोध नहीं है क्योंकि अपने स्वरूप का ग्रहण करना और पर स्वरूप का त्याग करना, इस व्यवस्था से वस्तु का वस्तुपना सिद्ध है। स्वस्वरूप के ग्रहण के समान यदि वस्तु पर स्वरूप का भी ग्रहण करेगी तो सर्वथा स्वपर के विभाग के अभाव का प्रसंग आयेगा। (जिससे संकरता दोष आयेगा) अत: स्व पर के विभाग के अभाव का प्रसंग अयुक्त है। जो ब्रह्माद्वैतवादी आदि वस्तु को सर्वथा एक स्वरूप मानते हैं उनके यहाँ भी पर रूप से रहित करने पर ही आत्मा, ज्ञान आदि का अद्वैतपना बन सकता है, अन्यथा द्वैत घट, पट आदि पर रूप से भी अद्वैत की सिद्धि हो जाती है। अद्वैतवाद भी एक, अनेक स्वरूप वस्तु का निषेध नहीं कर सकते तथा पर स्वरूप के त्याग के समान यदि वस्तु अपने स्वरूप का भी पृथग्भाव करती रहेगी तब तो वस्तु स्व के भावों से शून्य होकर निरुपाख्य हो जाएगी, परन्तु वस्तु को निरुपाख्य कहना अनुपपन्न (अयुक्त) है क्योंकि ग्राह्य-ग्राहक भाव, वाच्य-वाचक भाव आदि से रहित भी केवल अद्वैत संवेदन मात्र का ग्रहण करने पर उस प्रकार की व्यवस्था हो सकती है अन्यथा उस अद्वैत का निषेध हो जाता है। अर्थात् ग्राह्य ग्राहक भाव आदि के कथन बिना वस्तु की सिद्धि नहीं होती और ग्राह्य ग्राहक भाव द्वैत में होते हैं अद्वैत में नहीं। तथा सर्व वस्तु अपने द्रव्य में है, पर द्रव्य में नहीं है क्योंकि वस्तु की व्यवस्था स्वद्रव्य के स्वीकार और पर द्रव्य के तिरस्कार से ही सिद्ध होती है। स्व द्रव्य के समान परद्रव्य को भी स्वीकार करने पर द्रव्याद्वैत का प्रसंग आएगा। स्वद्रव्य और परद्रव्य के विभाग के अभाव का प्रसंग आएगा। परन्तु चेतन, अचेतन आदि के विभाग का अभाव प्रतीति विरुद्ध है, क्योंकि भिन्न-भिन्न लक्षण वाले जीव, पुद्गल आदि द्रव्यों की प्रसिद्धि है, अर्थात् जीव पुद्गल आदि द्रव्य पृथक्-पृथक् दृष्टिगोचर होते हैं।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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