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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 232 तन्निवृत्तिविषयस्य भावस्याभावपरिहारेणासंभवादभावस्य च भावपरिहारेणेति / वस्तुतोस्तित्वनास्तित्वयोः क्वचिद्रूपांतरत्वमेष्टव्यं / तथा चास्तित्वं नास्तित्वेन प्रतिषेध्येनाविनाभावे धर्मरूपं च यत्र हेतौ स्वेष्टतत्त्वे वा सिद्धं तदेव निदर्शनमिति न तदभावाशंका। प्रतिषेध्यं पुनर्यथास्तित्वस्य नास्तित्वं तथा प्रधानभावत: क्रमार्पितोभयात्मकत्वादिधर्मपंचकमपि तस्य तद्वत्प्रधानभावार्पितास्तित्वादन्यत्वोपपत्तेः / एतेन नास्तित्वं क्रमार्पित द्वैतं सहार्पितं चावक्तव्योत्तरशेषभंगत्रयं वस्तुतोन्येन धर्मषट्केन प्रतिषेध्येनाविनाभावि साधितं प्रतिपत्तव्यं / क्रमार्पितोभयादीनां विरुद्धत्वेन संभवान्न तदविनाभावित्वं शक्यसाधनं धर्मिणः साधनस्य वासिद्धेरिति चेत् न, स्वरूपादिचतुष्टयेन कस्यचिदस्तित्वस्य पररूपादिचतुष्टयेन च नास्तित्वस्य सिद्धौ क्रमतस्तद्वयादस्तित्वनास्तित्वद्वयस्य सहावक्तव्यस्य सहार्पितस्वपररूपादिचतुष्टयाभ्यां उसको भिन्न न मानना यह कैसे सिद्ध हो सकता है ? अर्थात् जिसके कान होते हैं उसके आँख अवश्य होती है, ऐसा सिद्ध होने पर भी आँख और कान एक नहीं हो सकते। किसी पदार्थ के किसी स्थान पर नास्तित्व के सामर्थ्य से अस्तित्व की सिद्धि हो जाती है तब तो रूपान्तर (भिन्नस्वरूप) के अभाव का प्रसंग आता है, तथा भाव और अभाव को सर्वथा एक कहने वाला (बौद्ध) किसी भी प्रकार से किसी भी पदार्थ में प्रवृत्ति और निवृत्ति नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी निवृत्ति का विषय भाव पदार्थ अभाव को छोड़कर कुछ नहीं है और अभाव का भाव को छोड़कर कुछ नहीं है। भाव को छोड़कर अभाव संभव नहीं है और अभाव को छोड़कर भाव संभव नहीं है, इसलिए पदार्थ के अस्तित्व और नास्तित्व को कथञ्चित् रूपान्तर (भिन्न) स्वीकार करना चाहिए। अस्तित्व धर्म (पक्ष) अपने प्रतिषेध करने योग्य नास्तित्व धर्म के साथ अविनाभावी (साध्य) और धर्म स्वरूप (हेतु) होकर जिस हेतु में या अपने अभीष्ट तत्त्व (दृष्टान्त) में सिद्ध हो रहा है, वही हमारे अनुमान का दृष्टान्त बन जाता है, अत: दृष्टान्त के अभाव की आशंका भी नहीं करनी चाहिए। जिस प्रकार अस्तित्व का निषेध करने योग्य नास्तित्व है उसी प्रकार प्रधानता से विवक्षित क्रम से अर्जित उभयात्मक अस्ति-नास्ति और शब्द के अवक्तव्य अस्त्यवक्तव्य, नास्त्यवक्तव्य और अस्तिनास्त्यवक्तव्य ये पाँचों धर्म भी अस्तित्व के प्रतिषेध्य हैं, क्योंकि उस नास्तित्व के समान उन पाँचों को भी प्रधान भाव से विवक्षित होने से अस्तित्व से अन्य (भिन्न) की उपपत्ति (सिद्धि) होती है अर्थात् इस प्रकरण में प्रतिषेध्य का अर्थ सर्वथा तुच्छाभाव नहीं है अपितु प्रकृत धर्म से विपरीत कथंचित् प्रतियोगी होकर सहयोगिता रूप में एक साथ रहना है। इस कथन से नास्तित्व, क्रम से विवक्षित अस्ति नास्तित्व, एक साथ विवक्षित अवक्तव्य तथा अस्त्यवक्तव्य, नास्त्यवक्तव्य और अस्ति नास्ति अवक्तव्य इन अस्तित्व के प्रतिषेधक छह धर्मों के साथ अविनाभाव रखने वाले सिद्ध किए गए हैं, ऐसा समझना चाहिए। कोई कहता है कि क्रम से विवक्षित उभय आदि षट् धर्मों की विरुद्धरूप से संभावना होने से उनका परस्पर अविनाभावीपना शक्य साधन नहीं है, अर्थात् सिद्ध नहीं किया जा सकता है, क्योंकि जो उभय है
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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