________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 12 भावादृष्टस्यात्मपरिणामस्येच्छाव्यभिचारित्वात्। परंपरया चेत्तर्हि द्रव्यादृष्टादेव साक्षादिच्छोत्पत्तिस्तच्च द्रव्यादृष्टं मोहनीयाख्यं कर्म पौद्गलिकमात्मपारतंत्र्यहेतुत्वादुन्मत्तकरसादिवदिति मोहकार्यमिच्छा कथममोहानामुद्भवेत् यतस्तल्लक्षणं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं तेषां स्यात्। तदभावे न सम्यग्ज्ञानं तत्पूर्वकं वा सम्यक्चारित्रमिति क्षीणमोहानां रत्नत्रयापायान्मुक्त्यपाय: प्रसज्येत। ततस्तेषां तद्व्यवस्थामिच्छता नेच्छा श्रद्धानं वक्तव्यम्। निर्देशाल्पबहुत्वादिचिंतनस्याविरोधतः / श्रद्धाने जीवरूपेस्मिन्न दोषः कश्चिदीक्ष्यते // 11 // . न हि निर्देशादयो दर्शनमोहरहितजीवस्वरूपे श्रद्धाने विरुद्ध्यंते तथैव निर्देशादिसूत्रे विवरणात्, नाप्यल्पबहुत्वसंख्याभेदांतरभावाः पुरुषपरिणामस्य नानात्वसिद्धेः। पुरुषरूपस्यैकत्वात् तत्र तद्विरोध एवेति का उत्पादक कहने) में तो भाव कर्मों का और इच्छा का साक्षात् (अव्यवहित रूप से) कार्य-कारण भाव नहीं हो सकता, क्योंकि आत्मपरिणामरूप भावकर्म का इच्छा के साथ व्यभिचार है; क्योंकि आत्मा में कर्मफल के होने पर इच्छा हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। यदि कहो कि. भाव कर्म का इच्छा के साथ साक्षात् कार्य-कारण भाव नहीं है, परम्परा से है तब तो द्रव्य कर्म से ही साक्षात् इच्छा की उत्पत्ति होती है और वह द्रव्य कर्म मोहनीय संज्ञक पौद्गलिक है और वही पौद्गलिक मोहनीय कर्म उन्माद करने वाले धतूरे का रस, शराब आदि के समान आत्मा को परतन्त्र (पराधीन) करने का हेतु है। अत: पौद्गलिक मोहनीय कर्म का कार्य इच्छा अमोही जीवों के कैसे उत्पन्न हो सकती है तथा जो श्रद्धान लक्षण सम्यग्दर्शन है वह निर्मोह केवलज्ञानी के कैसे हो सकता है और सम्यग्ज्ञानपूर्वक होने वाला सम्यक्चारित्र भी नहीं हो सकता तथा रत्नत्रय के अभाव में उनके मुक्तिप्राप्ति के अभाव का प्रसंग आता है। अत: मोहरहित जीवों के रत्नत्रय की व्यवस्था चाहने वाले विद्धानों को इच्छा श्रद्धान को सम्यग्दर्शन नहीं कहना चाहिए, अपितु तत्त्वार्थ श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहना चाहिए। "तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है" ऐसा सम्यग्दर्शन का लक्षण स्वीकार करने पर ही आगे कहे जाने वाले निर्देश, स्वामित्व, अल्पबहुत्व आदि सूत्र के अनुसार कथन के साथ विरोध नहीं आता अर्थात् सम्यग्दर्शन का लक्षण कहने पर ही सम्यग्दर्शन किसका परिणाम है, उसका साधन क्या है' आदि चिन्तन होता है। तथा जीवपरिणाम रूप इस तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन में अतिव्याप्ति आदि कोई दोष दृष्टिगोचर नहीं होता॥११॥ तथा दर्शन मोह रहित जीव के स्वभाव के श्रद्धान (सम्यग्दर्शन) में निर्देशादि का निरूपण विरुद्ध भी नहीं है - क्योंकि इस प्रकार से ही निर्देशादि सूत्र में सम्यग्दर्शन का निरूपण किया गया है तथा अल्पबहुत्व, संख्या, भेद, अन्तर, भाव आदि भी इस सम्यग्दर्शन के लक्षण में विरुद्ध नहीं हैं। अर्थात् आत्मपरिणाम सम्यग्दर्शन के अल्प-बहुत्व, संख्या, भेद, अन्तर भाव भी विरुद्ध नहीं है, क्योंकि आत्मा के परिणामों का नानापना सिद्ध ही है अर्थात् आत्मा के औपशमिकादि अनेक परिणाम होते हैं, उनमें भेद, अन्तर आदि भी पाये जाते हैं। किसी का अभिमत है कि आत्मा एक है, अत: उस आत्मा में अल्पबहुत्व, संख्या आदि के द्वारा भेद मानना विरोधयुक्त है। परन्तु उसका यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम आदि की अपेक्षा वाले आत्मा के एकत्व का अयोग है। यदि दर्शन मोहनीय कर्म के उपशमादि की अपेक्षा