________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 227 समानेतरस्वकार्यकरणादिति चेत्, स एव पर्यनुयोगोनवस्था च / तथोत्पत्तिरिति चेत् सर्वभावानां तत एव तथाभावोस्तु / समानेतरकारणत्वात्तेषां तथाभाव इत्यप्यनेनापास्तं, समानेतरपरिणामयोगादास्तथेत्यप्यसारं, तत्परिणामानामपरथापरिणामयोगात् तथाभावेनवस्थितेः / स्वतस्तु तथात्वेर्थानामपि व्यर्थस्तथापरिणामयोगः, समानेतराकारौ विकल्पनि सिनावेव स्वलक्षणेष्वध्यारोप्येते न तु वास्तवावित्यप्ययुक्तं तयोस्तत्र स्पष्टमवभासनात् तद्विकल्पानां तेषां जातुचिदप्रतिपत्तेरिति / तथापरिणतानामेव स्वलक्षणानां तथात्वसिद्धिरप्रतिबंधा तद्वद्धर्माणामस्तित्वादीनामपीति परमार्थत एव समानाकाराः पर्यायाः शब्दैर्निर्देश्या: यदि कहो कि उन कार्यों ने भी सदृश और विसदृश अपने उत्तरवर्ती कार्यों को किया है अत: वे सदृश विसदृश माने गये हैं, तब तो पुनः उन कार्यों के कार्यों पर भी हमारा प्रश्न उपस्थित रहेगा और बौद्ध वही उत्तर देगा अतः अनवस्था दोष आता है। यदि बौद्ध कहे कि इस प्रकार समान और असमानपने से पदार्थों की उत्पत्ति हो जाती है ? जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार से तो सम्पूर्ण पदार्थों की उसी प्रकार समान और असमान रूप से व्यवस्था हो जानी चाहिए। . “सदृश और विसदृश कारणों से उत्पन्न होने से उन पदार्थों के समानता और असमानता है", इस प्रकार के बौद्धों के कथन का भी उपर्युक्त हेतु से निराकरण कर दिया गया है। समान परिणाम और विसमान परिणाम के योग से पदार्थ सदृश और विसदृश होते हैं ऐसा कहना भी निस्सार हैं क्योंकि उन परिणामों के सदृश विसदृश के नियम के सिवाय अन्य रूप से परिणमन रूप योग से इस प्रकार का परिणमन होता है ऐसी व्यवस्था होने पर प्रश्नमाला की समाप्ति नहीं हो सकती, अत: अनवस्था दोष आता है। ___ यदि स्वतः ही अपनी योग्यता के अनुसार पदार्थों के सदृश, विसदृश परिणमन होता है, ऐसा मानते हैं तब तो उस प्रकार के परिणाम का सम्बन्ध मानना व्यर्थ है। भावार्थ : सम्पूर्ण पदार्थ अपनी योग्यता के कारण ही सदृश और विसदृश परिणमन करते हैं क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थों का सदृश विसदृश परिणमन होना तदात्मक धर्म है। बौद्ध का कथन- विकल्प ज्ञान में प्रतिभासित होने वाले पदार्थों का सदृश, विसदृश आकार स्वलक्षण में आरोपित किया जाता है परन्तु वे सदृश, विसदृश आकार वस्तुभूत नहीं हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि इस कथन में व्याघात दोष आता है। क्योंकि एक की सिद्धि हो जाने पर दूसरे को सामर्थ्य से सिद्ध कहना और कि इस प्रकार का बौद्धों का कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि स्वलक्षण में सदृश विसदृश आकार स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा प्रतिभासित हो रहा है आकारों से रहित उन स्वलक्षणों की कभी भी प्रतिपत्ति (ज्ञान) नहीं होती है इसलिए सदृश और विसदृश रूप आकारों से परिणत स्वलक्षणों की सदृश विसदृश की सिद्धि होती है, इसमें कोई प्रतिबन्धक नहीं है। उसी प्रकार पर्यायी के समान अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मों की परमार्थ से सिद्धि हो जाने से समान आकार वाली पर्यायें शब्द के द्वारा निर्देश करने योग्य