________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 228 पर्यायिवत् / सूक्ष्मास्त्वर्थपर्यायाः केचिदत्यंतासमानाकारा न तैर्निर्देश्याः इति निरवचं दर्शनं न पुनर्विकल्पप्रतिभासिनोर्विकल्पात्मन एव समानाकाराः शब्दैरभिधेयाः / बाह्यार्थः सर्वथानभिधेय इत्येकांतः प्रतीतिविरोधात् / प्रतिपादयित्रा य एवोद्धृत्य कुतश्चिज्जात्यंतरादर्थात्स्वयमधिगत्य धर्मी धर्मो वा शब्देन निर्दिष्टः स एव मया प्रतिपन्न इति व्यवहारस्याविसंवादिनः सुप्रसिद्धत्वाच्च। तद्भ्रान्तत्वव्यवस्थापनोपायापायात् / नन्वेकत्र वस्तुन्यनंतानां धर्माणामभिलापयोग्यानामुपगमादनंता एव वचनमार्गाः स्याद्वादिनां भवेयुः न पुनः सप्तैव वाच्येयत्तात्वात् वाचकेयत्तायाः / ततो विरुद्धैव सप्तभंगीति चेत् न, विधीयमाननिषिध्यमानधर्मविकल्पापेक्षया तदविरोधात् “प्रतिपर्यायं सप्तभंगी वस्तुनि" इति वचनात् तथानंता: सप्तभंग्यो भवेयुरित्यपि नानिष्टं, पूर्वाचार्यैरस्तित्वनास्तित्वविकल्पात्सप्तभंगीमुदाहृत्य कोई अर्थपर्याय अत्यन्त सूक्ष्म हैं, वे असमान आकार शब्द के द्वारा निर्देश करने योग्य नहीं हैं अर्थात् अत्यन्त व्यक्त मानव, घट, पट आदि और पर्यायी शब्दों के द्वारा वाच्य है कोई ज्ञानांश, कषायांश आदि सूक्ष्म अर्थपर्यायें शब्द के द्वारा वाच्य नहीं हैं इसलिए स्याद्वाद सिद्धान्त में यह निर्दोष सिद्ध है कि कथञ्चित् द्रव्य वाच्य है और कथञ्चित् द्रव्य अवाच्य है। बौद्ध मत के अनुसार असत्य विकल्प ज्ञान में प्रतिभासित विकल्प्यस्वरूप सदृश आकार ही शब्दों के द्वारा कहे जाने योग्य है परन्तु वास्तविक बहिरंग घट पटादि पदार्थ वा अंतरंग अर्थ सर्वथा अवाच्य है इस प्रकार बौद्ध का एकान्त अभिमत प्रतीति से विरुद्ध है। अथवा, शब्द के अवलम्बन से वस्तु का कथन करने वाले वक्ता के द्वारा कोई सजातीय एवं विजातीय अन्य पदार्थ से उद्धृत करके स्वयं धर्म और धर्मी को जानकर शब्द के द्वारा कथन किया गया है वही अर्थ मैंने जाना है, इस प्रकार की अविसंवादी प्रत्यभिज्ञा प्रमाणस्वरूप व्यवहार की प्रसिद्धि है, उस प्रमाणभूत व्यवहार को भ्रान्तत्व की व्यवस्था कराने का कोई उपाय नहीं है, अर्थात् बौद्ध अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण मानते हैं, प्रत्यक्ष के समान प्रत्यभिज्ञान और आगम ज्ञान भी अभ्रान्त और अविसंवादी है, अत: प्रमाण है। ऐसा नहीं मानता है, उसका खण्डन किया है। प्रश्न : स्याद्वादियों ने एक ही वस्तु में अनन्त धर्मों को शब्द के द्वारा कथन करने योग्य स्वीकार किया है अत: अनन्त धर्मों के कथन करने वाले वचन मार्ग भी अनन्त होने चाहिए। जितने वाच्य हैं उतनी संख्या वाले वाचक शब्द होने चाहिए अत: शब्द सात ही नहीं हैं, इसलिए स्याद्वादियों के सात भंगों का समाहार रूप सप्तभंगी विरुद्ध ही है। उत्तर : ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि विधान करने योग्य (विधि) और निषेध करने योग्य धर्मों के भेदों की अपेक्षा उन सप्त वचन मार्गों का होना विरुद्ध नहीं है। प्रत्येक पर्याय का अवलम्बन लेकर वस्तु में सप्त भंग होते हैं, ऐसा सिद्धान्त वचन है तथा कथन करने योग्य अनन्त धर्मों की विधि,निषेध द्वारा अनन्त सप्त भंगी का हो जाना भी अनिष्ट नहीं है। पूर्व (समन्तभद्रादि)