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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 226 निर्देश्यं वा कुतः / समानेतरपरिणामा धर्मा इति चेत् स्वलक्षणानि कुतः ? तथा स्वकारणादुत्पत्तेरिति चेत् तुल्यमितरत्र / स्वलक्षणान्येककार्यकरणाकरणाभ्यां समानेतररूपाणीत्ययुक्तं, केषांचिदेककार्यकारिणामपि विसदृशत्वेक्षणात् कथमन्यथेंद्रियविषयमनस्काराणां गडूच्यादीनां च ज्ञानादेख़रोपशमनादेश्चैककार्यस्य करणं भेदे स्वभावत एवोदाहरणार्ह / चित्रकाष्ठकर्माद्यनेककार्यकारिणामपि मनुष्याणां समानत्वदर्शनात् समान इति प्रतीतेरन्यथानुपपत्तेः / समानासमानकार्यकरणाद्भावानां तथाभाव इति चेत् कुतस्तत्कार्याणां तथा भावः ? ___ भावार्थ : प्रत्येक पदार्थ के सदृश परिणाम रूप व्यंजन पर्याय के अंश शब्द के द्वारा कहे जाते हैं परन्तु उसके सूक्ष्म अंश अर्थ पर्याय अविभागी प्रतिच्छेद शब्द के द्वारा नहीं कहे जा सकते हैं। अतः द्रव्य व्यक्त और अव्यक्त रूप है। 'ऊर्ध्वता और तिर्यक् सामान्य रूप समान परिणाम अस्तित्व आदि वस्तु के धर्म कैसे (किस प्रमाण से) सिद्ध होते हैं ? बौद्ध के इस प्रकार कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्धों के सिद्धान्त में स्वलक्षण तत्त्व किस प्रमाण से सिद्ध होता है? यदि कहो कि स्वलक्षण अपने कारणों से उत्पन्न होता है अतः सिद्ध है तब तो अन्यत्र (अस्तित्व आदि धर्म भी) स्वकीय कारणों से उत्पन्न होते हैं अतः स्वत: सिद्ध हैं अर्थात् समान परिणाम और विशेष परिणाम भी अपने-अपने विशेष कारणों से उत्पन्न होने से वस्तु धर्म हैं। "बौद्ध के द्वारा स्वीकृत स्वलक्षण भी एक कार्य करने और न करने की अपेक्षा समान और विसमान स्वरूप हो जाते हैं। समान धर्म और विसदृश धर्म पृथक्-पृथक् नहीं है"-ऐसा कहना भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि एक कार्य को करने वाले किन्हीं-किन्हीं पदार्थों में विसमानता (विसदृशता) देखी जाती है, अन्यथा (यदि एक कार्य को करने वाले पदार्थ में विसमानता नहीं होती तो) इन्द्रिय विषय और मन को ज्ञान, सुख आदि में से किसी एक कार्य का करना कैसे संभव होगा अर्थात् इन्द्रियाँ पुद्गल मय अचेतन हैं, उनके द्वारा जानने योग्य विषय बहिस्थित है और मन अंतरंग इन्द्रिय है, किन्तु इन्द्रिय, विषय और मन इन तीनों का संयोग पाकर विजातीय ज्ञान कार्य की उत्पत्ति होती है तथा गिलोय, कुटकी, चिरायता आदि पदार्थ के भी ज्वर का उपशमन, खाँसी दूर करना आदि किसी भी एक. कार्य का करना देखा जाता है, अन्यथा वे कई औषधियाँ एक रोग को दूर कैसे कर सकती हैं,-अतः स्वभाव से भेद होने पर भी यह उदाहरण देने योग्य है अथवा चित्र लिखना, काष्ठ को काटना आदि अनेक कार्यों को करने वाले भी मानवों के समानपना देखा जाता है। समानत्व दृष्टिगोचर होने से समानपना प्रतीत होता है, अन्यथा ये चितेरा, बढ़ई, राज आदि समान हैं, इस प्रकार की प्रतीति नहीं हो सकती थी अत: अनैकान्तिक हेत्वाभास होने से एक कार्य को करने और न करने की अपेक्षा से समानपने और विसमानपने की व्यवस्था करना उचित नहीं है। जो समान कार्य को करते हैं वे समान पदार्थ हैं और जो विसदृश कार्यों को करते हैं वे विसदृश भाव हैं। इस प्रकार सदृश और विसदृश कार्यों के करने से पदार्थों के सदृशपना और विसदृशपना व्यवस्थित है। ऐसा बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि उन सदृश, विसदृश कार्यों का समानपना और असमानपना कैसे होता है ? 1. एक पर्याय में होने वाली समानता को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं जैसे मानव पर्याय में होने वाली बालक वृद्धत्व आदि में मनुष्य जाति समानता। एक जाति विशेष में होने वाली समानता को तिर्यक् समानता कहते हैं जैसे मानव माजव जाति की अपेक्षा समान है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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