________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 223 तन्निश्चायकत्वोपपत्तेः अन्यथा स्वलक्षणनिश्चायकत्वस्य विरोधात् / यदि पुनरस्तित्वादिधर्मवासनावशात्तद्धर्मनिश्चयस्योत्पत्तेर्न प्रत्यक्षं तन्निश्चयस्य जनकमिति मतं तदा स्वलक्षणं शुद्धं प्रतिभातमिति निश्चयस्यापि स्वलक्षणवासनाबलादुदयान्न तत्तस्य जनकं स्यात् / स्वलक्षणेनुभवनाभावे निश्चयायोगो न पुनरस्तित्वादिधर्मेष्विति स्वरुचिप्रकाशमात्रं / श्रुतिमात्रात्तद्धर्मनिश्चयस्योत्पत्तौ स्वलक्षणनिर्णयस्यापि तत एवोत्पत्तिरस्तु / तथा च न वस्तुतः स्वलक्षणस्य सिद्धिस्तद्धर्मवत् स्वलक्षणस्य। तन्निश्चयजननासमर्थादपि प्रत्यक्षात्सिद्धौ तद्धर्माणामपि तथाविधादेवाध्यक्षात् सिद्धि: स्यात् / प्रत्यक्षे स्वलक्षणमेव प्रतिभाति न तु कियंतो धर्मा इत्ययुक्तं, सत्त्वादिधर्माक्रांतस्यैव वस्तुनः प्रतिभासनात् / प्रत्यक्षादुत्तरकालमनिश्चिताः कथं प्रतिभासंते नाम तद्धर्मा इति चेत्, स्वलक्षणं कथं ? स्वलक्षणत्वेन सामान्येन रूपेण निश्चितमेव तत् में प्रत्यक्ष रूप अनुभव के अभाव में निश्चय का अयाग है परन्तु अस्ति आदि धर्मों में प्रत्यक्ष रूप अनुभव किये बिना निश्चय नहीं होता है ऐसा नहीं मानना स्वरुचि मात्र का कथन है, अर्थात् स्वलक्षण में अनुभव नहीं होने पर निश्चय नहीं होता है, परन्तु अस्तित्व आदि धर्मों का प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा अनुभव नहीं होने पर भी निश्चय हो जाता है-ऐसा कहना व्यर्थ का प्रलाप मात्र है। केवल शब्द के सुनने मात्र से ही अस्तित्व आदि धर्मों की उत्पत्ति हो जाती है, ऐसा स्वीकार करने पर तो स्वलक्षण के निर्णय की उत्पत्ति भी शब्द का सुनना ही कारण होना चाहिए, अर्थात् स्वलक्षण का निर्णय भी शब्द सुनने मात्र से हो जाना चाहिए, ऐसा होने पर अस्तित्व आदि धर्मों के समान स्वलक्षण की भी सिद्धि वास्तविक नहीं हो सकती। ___ उस स्वलक्षण के निश्चय को उत्पन्न करने में असमर्थ प्रत्यक्ष से स्वलक्षण की सिद्धि हो जाने पर तो अस्तित्व आदि धर्मों के निश्चय के उत्पादन में असमर्थ प्रत्यक्ष के द्वारा अस्तित्व आदि धर्मों की सिद्धि हो जाएगी। (अत: स्वलक्षण अस्तित्व आदि सात धर्मों से रहित कैसे सिद्ध हो सकता है।) __ "प्रत्यक्ष प्रमाण में स्वलक्षण ही प्रतिभासित होता है, कितने ही अस्तित्व आदि धर्म प्रतिभासित नहीं होते हैं" ऐसा कहना भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण में अस्तित्व नास्तित्व आदि धर्मों से आक्रान्त (व्याप्त) वस्तु का ही प्रतिभास होता है। यदि बौद्ध कहे कि प्रत्यक्ष ज्ञान के अनन्तर उत्तर काल में जिनका निश्चय नहीं किया गया है-ऐसे अस्तित्व आदि धर्म प्रत्यक्ष प्रमाण में प्रतिभासित कैसे हो सकते हैं, वा ये धर्म वस्तु का स्वलक्षण है यह निर्णय कैसे हो सकता है? इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि-प्रत्यक्ष ज्ञान के अनन्तर जिसका निश्चय नहीं किया गया है उस स्वलक्षण का प्रत्यक्ष प्रमाण में प्रतिभास कैसे हो सकता है? “यदि कहो कि-प्रत्यक्ष के अनन्तर होने वाले निश्चय के द्वारा स्वलक्षण सामान्य रूप से निश्चित ही है।