________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 224 प्रत्यक्षपृष्टभाविना निश्चयेनेति चेत् , तद्धर्माः कथं सामान्येनानिश्चिताः समानाकारस्यावस्तुत्वात् / तेन निश्चिता न ते वास्तवाः स्युरितिचेत् स्वलक्षणं कथं तेन निश्चीयमानं वस्तु सत्। तथा तदवस्त्वेवेतिचेत् यथा न निश्चीयते तथा वस्तु तदित्यायातं / तच्चानुपपन्नं पुरुषाद्यद्वैतवत् / स्वलक्षणमेव वस्तु सत् स्वार्थक्रियानिमित्तत्वान्नात्माद्यद्वैतमित्यपि न सत्यं, सत्त्वादिधर्माणामभावे तस्य तन्निमित्तत्वासिद्धेः खरशृंगादिवत् सर्वत्र सर्वथैकांतेप्यक्रियानिमित्तत्वस्य निराकृतत्वाच्च / बहिरंतर्वानेकांतात्मन्येव तस्य समर्थनात् क्षणिकस्वलक्षणस्य तन्निमित्तत्वमंगीकृत्याशक्यनिश्चयस्यापि धर्माणां तत्प्रतिक्षेपे तान्यप्यंगीकृत्य स्वलक्षणे तत्प्रतिक्षेपस्य कर्तुं सुशकत्वात् / तथाहि-सत्त्वादयो धर्मा एवार्थक्रियांकारिणः संहतसकलविकल्पावस्थायामुपलक्ष्यते न स्वलक्षणं तस्य स्ववासनाप्रबोधाद्विकल्पबुद्धौ प्रतिभासनात् / केवलं इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस कथन से स्वलक्षण के अस्तित्वादि धर्म सामान्य के द्वारा अनिश्चित कैसे हो सकते हैं? यदि कहो कि अवस्तु होने से सामान्य आकार का वास्तव निश्चय नहीं है जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो प्रत्यक्ष ज्ञान के अनन्तर निश्चित स्वलक्षण वस्तु वास्तविक सद्भूत कैसे हो सकती है ? यदि कहो कि अवास्तविक सामान्य से निश्चित स्वलक्षण भी अवस्तु है, तब तो जिस प्रकार अवास्तविक सामान्य से निश्चय किया गया स्वलक्षण अवस्तु है, उसी प्रकार सत् आदि भी अवस्तु होंगे तथा निश्चय नहीं किया गया स्वलक्षण जैसे वस्तुभूत है, उसी प्रकार अनिश्चित सत् आदि धर्म भी वस्तुभूत हैं ऐसा सिद्ध होता है। जिस प्रकार पुरुषाद्वैत, ब्रह्माद्वैत आदि की सिद्धि नहीं होती है-उसी प्रकार एकान्त वाद में स्वलक्षण की सिद्धि भी नहीं हो सकती। “स्वलक्षण तत्त्व ही वस्तुभूत सत् पदार्थ है-क्योंकि वह स्वलक्षण स्वकीय अर्थक्रियाओं का निमित्त कारण है। ब्रह्माद्वैत, पुरुषाद्वैत, शब्दाद्वैत आदि अर्थक्रियाओं का कारण नहीं है अत: वास्तविक नहीं है-इस प्रकार बौद्ध का कहना उचित (सत्य) नहीं है-क्योंकि सत्त्व आदि धर्मों का अभाव मानने पर उस स्वलक्षण के अर्थक्रियापना सिद्ध नहीं होता है जैसे सत्तारूप नहीं होने से गधे के सींग, आकाश के फूल आदि में अर्थक्रियात्व की सिद्धि नहीं होती है। सर्वत्र सर्वथा एकान्त में अर्थक्रियात्व के निमित्त का निराकरण कर दिया गया है तथा घट, पट आदि बहिरंग और आत्मा, ज्ञान आदि अंतरंग पदार्थों के अस्ति, नास्ति, नित्य, अनित्य आदि अनेक धर्मात्मक होने पर ही अर्थक्रिया का निमित्तत्व सिद्ध होता है, इसका समर्थन किया है। ___ एक क्षण ठहरकर द्वितीय क्षण में समूल नष्ट हो जाने वाले स्वलक्षण को उस अर्थक्रिया का निमित्तपना स्वीकार करके जिसका निश्चय नहीं किया जा सके, ऐसे स्वलक्षण के अस्तित्व आदि धर्मों का अर्थक्रिया के निमित्तपने निषेध किया जाएगा। ऐसा होने पर तो उन धर्मों को भी अर्थक्रिया का निमित्तपन अंगीकार करके स्वलक्षण में उस अर्थक्रिया के निमित्तपने का निषेध आसानी से किया जा सकता है। ___ उसी को स्पष्ट करते हैं-सम्पूर्ण विकल्पों से शून्य निर्विकल्प दशामें अस्तित्व आदि वस्तु के धर्म ही अर्थक्रिया करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं परन्तु स्वलक्षण अर्थक्रिया को करता हुआ दृष्टिगोचर नहीं होता है। स्वकीय वासना के जागृत होने से उस विकल्प बुद्धि में ही स्वलक्षण प्रतिभासित होता है। केवल विकल्प