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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 222 स्वलक्षणमुपलक्ष्यते कदाचित् ? संहृतसकलविकल्पावस्थायामुपलक्ष्यत एव तदनंतर व्युच्छित्तचित्तदशायामिदमित्थमस्त्यन्यथा नास्तीत्यादिविधिप्रतिषेधधर्मविशेषप्रतीतेः पूर्व तथाविधवासनोपजनितविकल्पबुद्धौ प्रवृत्तेः / केवलं तान् धर्मविशेषांस्तत्र प्रतिभासमानानपि कुतश्चिद्विभ्रमहेतो: स्वलक्षणेप्यारोपयंस्तदपि तद्धर्मात्मकं व्यवहारी मन्यते / वस्तुतस्तद्धर्माणामसंभवात् / संभवे वा प्रत्यक्षे प्रतिभासप्रसंगादेकत्रापि नानाबुद्धीनां निवारयितुमशक्तेरिति केचित् / तेपि पर्यनुयोज्याः / कुतः ? सकलधर्मविकलं स्वलक्षणमभिमतदशायां प्रतिभासमान विनिश्चितमिति / प्रत्यक्षत एवेति चेन्न, तस्यानिश्चायकत्वात् / निश्चयजनकत्वान्निश्चायकमेव तदिति चेत् , तद्यस्तित्वादिधर्मनिश्चयजननात्तन्निश्चयोपि प्रत्यक्षोस्तु तस्य बौद्ध मत का कथन- जिस समय सम्पूर्ण नित्य, अनित्य आदि विकल्पों का संहार (निरोध) कर. दिया जाता है, उस निर्विकल्प अवस्था में विधि निषेधों से रहित स्वलक्षण तत्त्व दृष्टिगोचर होता है उसके बाद रागद्वेष की अवस्था में चित्तवृत्ति के नाना विकल्पों से युक्त हो जाने पर “यह इस प्रकार है" "अन्य प्रकार नहीं है" इत्यादि विधि निषेध धर्म की विशेष प्रतीति होने लग जाती है, क्योंकि पूर्वकालीन इस प्रकार की वासनाओं से उपजनित विकल्प बुद्धि में प्राणियों की प्रवृत्ति होती है केवल विकल्प बुद्धि में प्रतिभासित विधि निषेध आदि विशेष धर्मों को भी किसी विभ्रम (भ्रान्ति) के कारण से स्वंलक्षण में आरोपित कर लिया जाता है, उस विकल्प को व्यवहारी जन आत्मा का या वस्तु का स्वरूप मान लेते हैं। निरंश स्वलक्षण में विधि, निषेध आदि विकल्प नहीं हैं क्योंकि वस्तुत: विकल्प वस्तु का धर्म नहीं है। विकल्प होना असंभव है, यदि वस्तु में विधि आदि का विकल्प वास्तविक होता तो उन विकल्पों का निर्विकल्प प्रत्यक्ष में भी प्रतिभास होने का प्रसंग आता तथा ऐसा होने पर एक पदार्थ में भी अनेक धर्मों का ज्ञान हो जाने का निवारण करने के लिए समर्थ नहीं हो सकते। इस प्रकार कोई (बौद्ध) कहते हैं? इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं-वे बौद्ध इस प्रकार पूछने योग्य हैं, उन बौद्धों को हम पूछते हैं कि अभिमत दशा में सकल धर्म से रहित स्वलक्षण के प्रतिभास का निश्चय किस ज्ञान से होता है? प्रत्यक्ष प्रमाण से इसका निश्चय होता है, ऐसा कहना तो उचित नहीं है क्योंकि सौगत सिद्धान्त में प्रत्यक्ष प्रमाण को निश्चयात्मक स्वीकार नहीं किया है। यदि बौद्ध कहे कि प्रत्यक्ष प्रमाण स्वयं निश्चयात्मक नहीं है परन्तु निश्चय का जनक (उत्पादक) होने से निश्चयात्मक है। जैनाचार्य कहते हैं तब तो अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मों का विकल्पज्ञान रूप निश्चय का उत्पादक होने से उन विकल्पों का निश्चयज्ञान भी प्रत्यक्ष प्रमाण हो जाएंगे, क्योंकि सौगत ने प्रत्यक्ष प्रमाण को निश्चय का जनक माना है, अन्यथा प्रत्यक्ष के स्वलक्षण के निश्चय करने का विरोध आएगा अर्थात् यदि प्रत्यक्ष निर्विकल्पज्ञान निश्चय का उत्पादक नहीं होगा तो स्वलक्षण का निश्चय कैसे कराएगा? यदि बौद्ध कहे कि “अस्तित्वादि धर्मों की हृदय में स्थित मिथ्या वासना के कारण अस्तित्व आदि धर्मों का निश्चय होता है अत: उस निश्चय का जनक प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है।" तो जैनाचार्य कहते हैं कि “यह सर्वविकल्प रहित शुद्ध स्व लक्षण प्रतिभास है," इस प्रकार के निश्चय की उत्पत्ति भी स्वलक्षण की वासना के बल से वा वासना के उदय से होगी। उस स्वलक्षण के निश्चय का जनक प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकेगा अर्थात् अस्तित्व आदि धर्म और स्वलक्षण आदि की निश्चायक वासना ही है, यह सिद्ध होता है। स्वलक्षण
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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