________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 221 - तत्र प्रश्नवशात्कचिद्विधौ शब्दः प्रवर्तते। स्यादस्त्येवाखिलं यद्वत्स्वरूपादिचतुष्टयात् // 49 // स्यान्नास्त्येव विपर्यासादिति कश्चिन्निषेधने / स्याद्वैतमेव तद्वैतादित्यस्तित्वनिषेधयोः // 50 // क्रमेण यौगपद्याद्वा स्यादवक्तव्यमेव तत् / स्यादस्त्यवाच्यमेवेति यथोचितनयार्पणात् / / 51 // स्यान्नास्त्यवाच्यमेवेति तत एव निगद्यते / स्यावयावाच्यमेवेति सप्तभंग्यविरोधतः॥५२॥ न ह्येकस्मिन् वस्तुनि प्रश्नवशाद्विधिनिषेधयोर्व्यस्तयोः समस्तयोश्च कल्पनयोः सप्तधा वचनमार्गो विरुध्यते, तत्र तथाविधयोस्तयोः प्रतीतिसिद्धत्वादेकान्तमन्तरेण वस्तुत्वानुपपत्तेरसम्भवात्। स्वलक्षणे तयोर प्रतीतेर्विकल्पाकारतया संवेदनान्न प्रतीतिसिद्धमिति चेत् , किं पुनर्व्यस्तसमस्ताभ्यां विधिप्रतिषेधाभ्यां शून्यं उन सात प्रकार के वाचक शब्दों में किसी शब्द से तो प्रश्न के वश से विधि आत्मक (अस्ति आत्मक) द्रव्य में प्रवृत्ति होती है जैसे स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप स्वचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु अस्ति है। तथा कभी विपर्यय (परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप चतुष्टय) की अपेक्षा वस्तु नास्ति रूप है अत: शब्द निषेध का वाचक है। विधि और निषेध दोनों का अस्तित्व एक साथ रहने से अतः क्रम से उन दोनों का वाचक होने से शब्द विधि निषेधात्मक है तथा विधि और निषेध की एक साथ कथन की विवक्षा होने पर शब्द कथञ्चित् अवक्तव्य है। ___तथा यथायोग्य उचित नय की विवक्षा करने पर स्वरूप चतुष्टय वा भाव विभाव दोनों को एक साथ कहने की विवक्षा करने पर वस्तु कथञ्चित् अस्त्यवक्तव्य है। ____ पर द्रव्य क्षेत्र की, यथायोग्य युगपत् कथन की विवक्षा से वस्तु कथञ्चित् नास्ति अवक्तव्य कही जाती है। तथा स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की तथा युगपत् कथन करने की विवक्षा से वस्तु कथञ्चित् अस्ति नास्ति अवक्तव्य स्वरूप है, ऐसा कहा जाता है, इस प्रकार धर्मों के अविरोध से शब्दों की प्रवृत्ति द्वारा सात भंग की योजना करनी चाहिए॥४९-५०-५१-५२॥ प्रश्न के वश एक ही वस्तु में पृथक्-पृथक् या एक साथ विधिनिषेध की सत्य कल्पना हो जाने पर सात प्रकार के वचन मार्ग की प्रवृत्ति विरुद्ध नहीं है क्योंकि, एक ही वस्तु में उस प्रकार के विधि निषेध की कल्पना प्रतीति सिद्ध है। सप्त भंग में वा विधि निषेध में एक ही धर्म के बिना वस्तु की सिद्धि होना असंभव है अर्थात् विधि और निषेध में से एक भी वस्तु का लोप कर देने पर वस्तुत्व की सिद्धि नहीं हो सकती है। स्वलक्षण तत्त्व में विधि निषेध की प्रतीति नहीं होने से तथा विकल्पाकार ज्ञान का संवेदन होने से विधि, निषेध प्रतीति सिद्ध नहीं है, ऐसा सौगतानुयायी बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं-कि विधि रहित, निषेध रहित और विधि निषेध रहित स्वलक्षण कभी दृष्टिगोचर हुआ है क्या? अर्थात् जो वस्तु स्व की विधि और पर के निषेध से अलंकृत नहीं है, वह दृष्टिगोचर भी कैसे हो सकती है।