________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 220 3 मुख्यतः प्रतिपन्नस्य क्वचिद्विशेषणत्वादिदर्शनात् प्रतिषेधप्रधान एव शब्द इत्यप्यनेनापास्तं / क्रमादुभयप्रधान एव शब्द इत्यपि न साधीयः, तस्यैकैकप्रधानत्वप्रतीतेरप्यबाधितत्वात् / सकृद्विधिनिषेधात्मनोर्थस्यावाचक एवेति च मिथ्या, तस्यावाच्यशब्देनाप्यवाच्यत्वप्रसक्तेः / विध्यात्मनोर्थस्य वाचक एवोभयात्मनो युगपदवाचक एवेत्येकांतोपि न युक्तः, प्रतिषेधात्मनः उभयात्मनश्च सहार्थस्य वाचकत्वावाचकत्वाभ्यां शब्दस्य प्रतीतेः / इत्थमेवेत्यप्यसंगतमन्यथापि संप्रत्ययात् / क्रमाक्रमाभ्यामुभयात्मनोर्थस्य वाचकश्चावाचकश्च नान्यथेत्यपि प्रतीतिविरुद्धं, विधिमात्रादिप्रधानतयापि तस्य प्रसिद्धेरिति सप्तधा प्रवृत्तोर्थे शब्दः प्रतिपत्तव्यो विधिप्रतिषेधविकल्पात्॥ निषेध की गौणता होने से उसकी प्रतिपत्ति होने से वास्तव निषेध की प्रतिपत्ति नहीं है, इस प्रकार कहना भी असारभूत है, क्योंकि सभी स्थलों में सभी काल में और सभी प्रकार से प्रधान भाव से अप्रतिपन्न निषेध की गौण रूप से असिद्धि है अर्थात् जो प्रधान रूप से नहीं है वह गौण रूप से नहीं हो सकता, क्योंकि अपने स्वरूप से मुख्य रूप से प्रतिपन्न (युक्त) की ही किसी स्थल पर किसी विशेषणं की अपेक्षा गौणता देखी जाती है अर्थात् मुख्य रूप से प्रसिद्ध सिंह का बालक में अध्यारोप किया जाता है। "शब्द प्रधान रूप से निषेध करने वाले ही हैं, अर्थात् शब्द निषेध के ही वाचक हैं" ऐसे एकान्तवाद का भी इस कथन से निराकरण कर दिया है, अत: सर्वथा शब्द को निषेधवाचक कहना भी युक्त नहीं है। "क्रम से विधि और निषेध दोनों का प्रधान रूप से शब्द कथन करता है" ऐसा एकान्त भी श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि विधि और निषेध में से एक-एक की भी प्रधान रूप से बाधा रहित प्रतीति हो रही है। (जैसे “शराब नहीं पीना चाहिए" इस वाक्य में शराब के पीने का निषेध मख्य रूप से प्रतीत हो रहा हैं और दूध आदि के पीने की विधि की मौण रूप से प्रतीति होती है।) एक साथ विधि और निषेध का कथन करने वाला शब्द नहीं है अतः शब्द अवाचक (अवक्तव्य) ही है, ऐसा कहना भी मिथ्या है क्योंकि यदि सभी शब्द अवाच्य हैं तो अवाच्य शब्द के भी अवाचक का प्रसंग आयेगा, अर्थात् शब्द अवाच्य है, ऐसा भी कहना शक्य नहीं है, क्योंकि अवाचक किसी के द्वारा वाचक नहीं हो सकता। शब्द विधि आत्मक अर्थ का वाचक ही है और विधि, निषेध, द्वय स्वरूप अर्थ का एक समय में एक साथ वाचक नहीं है-ऐसा एकान्त मानना भी युक्त नहीं है, क्योंकि प्रतिषेध स्वरूप अर्थ का वाचकत्व और विधि निषेधात्मक उभय स्वरूप अर्थ के एक साथ अवाचकत्व से शब्द की प्रतीति हो रही है। इस प्रकार प्रतिषेध रूप अर्थ का वाचकत्व और विधि निषेध रूप अर्थ की एक साथ अवाचकत्व रूप से ही प्रतीति हो रही है, ऐसा एकान्त भी सुसंगत नहीं है, क्योंकि अन्य प्रकार विधि, निषेध, विधि निषेधात्मक आदि रूप से भी शब्द की प्रतीति होती है। "शब्द क्रम से विधि निषेधात्मक अर्थ का वाचक है और अक्रम से विधि निषेध उभय रूप अर्थ का अवाचक है, यही शब्द का अर्थ है, अन्य प्रकार से नहीं है।" ऐसा एकान्त मानना भी प्रतीति विरुद्ध है, क्योंकि विधि, प्रतिषेध आदि रूप से भी प्रधानतया शब्द की प्रसिद्धि है, इसलिए सात प्रकार से शब्द की अर्थ में प्रवृत्ति होती है, इस प्रकार जानना चाहिए अतः विधि निषेध के विकल्प से भेद करने पर वाच्य धर्म सात प्रकार के हैं और उसके वाचक शब्दों के विकल्प भी सात प्रकार के हैं।