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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 218 साक्षात्प्रमाणफलयोरभेद एवेत्ययुक्तं पर्यायशक्तिभेदमंतरेण करणसाधनस्य भावसाधनस्य च फलस्यानुपपत्तेः / सर्वथैक्ये तयोरेकसाधनत्वापत्तेः करणाद्यनेककारकस्यैकत्रापि कल्पनामात्रादुपपत्तिरिति चेन्न, तत्त्वतः संवेदनस्याकारकत्वानुषक्ते : / न चाकारकं वस्तु कूटस्थवत् तयोरसाक्षाढ़ेद एवेत्यप्यसंगतं, तदेकोपादानत्वाभावप्रसंगात् / न च तयोभिन्नोपादानता युक्ता संतानांतरवदनुसंधानविरोधात् / यदा पुनरव्यवहितं व्यवहितं च फलं प्रमाणाद्रव्यार्थादभिन्नं पर्यायार्थाद्भिन्नमिष्यते तदा न कश्चिद्विरोधस्तथाप्रतीतेः। भावार्थ : प्रमाण के बाद अज्ञान की निवृत्ति होती है अत: पर्याय शक्ति से प्रमाण के फल में भेद है और प्रमाण और प्रमाण फल का एक आत्मा ही उपादान है-अत: इन दोनों में अभेद है। यद्यपि प्रमाण और प्रमाण के फल में कारण-कार्य भेद है, प्रमाण कारण है और फल कार्य है-परन्तु दोनों का उपादान एक होने से भेद नहीं है। प्रमाण और प्रमाण के फल में साक्षात् (समय का व्यवधान नहीं होने से) अभेद ही है, ऐसा एकान्त मानना ठीक नहीं है क्योंकि पर्याय रूप भेद शक्ति के बिना करणसाधन और भावसाधन से सिद्ध फल की निष्पत्ति नहीं हो सकती सर्वथा प्रमाण और प्रमाणफल में एकता मानने पर प्रमाण शब्द की करण साधन या भाव साधन में से किसी एक निरुक्ति से शब्द की सिद्धि हो जाने का प्रसंग आता है अर्थात् जिसके द्वारा जाना जाता है-वह प्रमाण है-यह करण साधन है-साधकतम करण है और जानना मात्र प्रमाण है-यह भाव साधन से निष्पन्न प्रमाण शब्द प्रमाण का फल है, अज्ञान की निवृत्ति है। __“करण साधन, कर्तृसाधन, भाव साधन आदि अनेक कारकों की एक पदार्थ में केवल कल्पना से ही सिद्धि होती है।" ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर संवेदन को भी वास्तविक रूप से अकारकत्व (कारक के अभाव) का प्रसंग आयेगा, परन्तु बौद्ध सिद्धान्त में कर्त्ताकारक, करण कारक आदि का व्यवहार किया गया है, अत: कूटस्थ नित्य के समान वस्तु अकारक नहीं है अर्थात् जैसे कूटस्थ नित्य में अर्थक्रिया न होने से वह कूटस्थ नित्य वस्तुभूत नहीं है, उसी प्रकार कारकों के बिना भी पदार्थ वस्तुभूत नहीं रहते हैं। "प्रमाण और प्रमाण के फल में असाक्षात् (समय का व्यवधान, अन्तराल होने से) भेद ही है," ऐसा कहना भी असंगत (पूर्वापर विरोध युक्त) है क्योंकि प्रमाण और प्रमाण के फल में सर्वथा भेद मानने पर दोनों में एक उपादान के अभाव का प्रसंग आता है। उन दोनों में भिन्न उपादानता मानना भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि इन दोनों में भिन्न उपादानता मानने पर सन्तानान्तर के समान अनुसंधान (प्रत्यभिज्ञान) का विरोध आता है, अर्थात् जैसे धनदत्त के द्वारा जाने गये विषय का महीदत्त के द्वारा हानोपादान नहीं होता है उसी प्रकार प्रमाण और फलज्ञान का भिन्न उपादान होने पर “मैंने जो हान उपादान को जाना है उसको छोड़ रहा हूँ" इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता परन्तु जब अज्ञान निवृत्ति रूप साक्षात् फल तथा हान (त्याग) आदि बुद्धि रूप व्यवहित फल ये दोनों द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा प्रमाण से अभिन्न और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा भिन्न स्वीकार किये जाते हैं तब अनेकान्त सिद्धान्त में कोई विरोध नहीं है क्योंकि इस प्रकार की प्रतीति होती है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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