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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 297 येनैवार्थो मया ज्ञातस्तेनैव त्यज्यतेधुना। गृह्येतोपेक्षते चेति तदैक्यं केन नेष्यते // 44 // भेदैकांते पुनर्न स्यात् प्रमाणफलता गतिः। संतानांतरवत्स्वेष्टेप्येकत्रात्मनि संविदोः // 45 // न ह्येकेन प्रमितेर्थे परस्य हानादिवेदनं तत्प्रमाणफलं युक्तमतिप्रसंगात् / यस्य यत्र प्रमाणं ज्ञानं तस्यैव तत्र फलज्ञानमित्युपगमे सिद्धं प्रमाणफलयोरेकप्रमात्रात्मकयोरेकत्वं / न चैवं तयोर्भेदप्रतिभासो विरुध्यते विशेषापेक्षया तस्य व्यवस्थानात // पर्यायार्थार्पणाद्भेदो द्रव्यादभिदास्तु नः / प्रमाणफलयोः साक्षादसाक्षादपि तत्त्वतः / / 46 / / का आश्रय लेने पर ही कथञ्चित् भेदाभेदात्मक का कथन युक्तिसंगत होता है अन्यथा (स्याद्वाद के आश्रय बिना) प्रमाण और प्रमाण फल का अयोग है अर्थात् स्याद्वाद के बिना प्रमाण और प्रमाण के फल की सिद्धि नहीं हो सकती है। अथवा क्वचित् हेय, उपादेय और उपेक्षा रूप फल ज्ञान भी कथंचित् प्रमाण ज्ञान से अव्यवधान (व्यवधान रहित) उपलब्ध होता है-अर्थात् ज्ञान और ज्ञान का फल दोनों एक साथ उत्पन्न होते हैं, इसलिए हेयादि ज्ञान फल के सर्वथा प्रमाण से व्यवहितपना सिद्ध नहीं है। तथाहि-जिस मैंने यह अर्थ जाना है, उसी मेरे द्वारा इस समय हेय पदार्थ छोड़ दिया जाता है, उपादेय का ग्रहण किया जाता है और उपेक्षणीय पदार्थ की उपेक्षा की जाती है, अर्थात् जो अप्रयोजनीय है उसकी उपेक्षा करने वाला भी मैं ही हूँ , मैने ही जाना था, इस प्रकार फल और प्रमाण का एकपना किस के द्वारा इष्ट नहीं किया गया है, अर्थात् प्रमाण के हानबुद्धि आदि फल भी प्रमाण के सम-समयवर्ती होकर अव्यवहित फल प्रतीत होता है। सर्वथा भेद एकान्त में प्रमाण और प्रमाण के फल की गति नहीं हो सकती अर्थात् सर्वथा भेद एकान्त में प्रमाण और प्रमाण के फल का निर्णय नहीं हो सकता। जैसे सन्तानान्तर का ज्ञान दूसरे के ज्ञान का कारण नहीं है, उसी प्रकार अपने अभीष्ट विवक्षित एक आत्मा में उत्पन्न सर्वथा भिन्न दो ज्ञानों में प्रमाणपने और फलपने का निर्णय नहीं हो सकता है॥४४-४५॥ ___“एक पुरुष के द्वारा अर्थ की प्रमिति हो जाने पर दूसरे पुरुष के त्याग आदि का ज्ञान उस पूर्व पुरुष के प्रमाण का फ़ल है। यह कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि इसमें अतिप्रसंग दोष आता है, जहाँ जिस पुरुष को प्रमाण ज्ञान होता है, वहाँ उसी पुरुष के अज्ञान की निवृत्ति रूप फलज्ञान की सिद्धि होती है, इस प्रकार का नियम होने पर प्रमाण, प्रमाता, प्रमिति और प्रमाण के फल में अभेद सिद्ध होता है। अन्यथा किसी को ज्ञान होगा और दूसरे के अज्ञान की निवृत्ति होगी तो किसी के भी अज्ञान की निवृत्ति हो जाएगी पठन-पाठन आदि सर्व व्यर्थ होंगे। ___इस प्रकार प्रमाण, प्रमाता और प्रमाण के फल स्वरूप प्रमिति में कथंचित् अभेद होने से (एक प्रमाता होने से) प्रमाण और प्रमाण के फल में कथंचित् एकत्व है तथा कथञ्चित् भेदाभेदात्मक स्वीकार करने पर प्रमाण और प्रमाण के फल में भेद का प्रतिभास विरुद्ध नहीं पड़ता, क्योंकि विशेष की अपेक्षा प्रमाण और प्रमाण के फल की व्यवस्था होती है अर्थात्-कथंचित् प्रमाण से प्रमाण फल (अज्ञाननिवृत्ति) भिन्न है और कथञ्चित् प्रमाण एवं प्रमाण का फल अभिन्न है, ज्ञान स्वरूप ही हैं। स्याद्वाद सिद्धान्त में पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा प्रमाण और प्रमाण के फल में भेद है और द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा करणज्ञानरूप प्रमाण में और अज्ञान निवृत्ति रूप प्रमाण फल में अभेद है। वास्तव में प्रमाण और प्रमाण के फल में साक्षात् और असाक्षात् समयभेद नहीं है॥४६॥
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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