________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 10 दर्थव्यभिचारस्य परिहतत्वात् / सम्यग्दर्शनस्य लक्षणसूत्रमनर्थकमेवं स्यात् कारणविशेषसूत्रादेव तच्छब्दार्थस्य व्यभिचारपरिहरणादिति चेन्न, निसर्गाधिगमकारणविशेषस्य प्रशस्तालोचनेपि भावाद्व्यभिचारस्य तदवस्थानात्। न हि परोपदेशनिरपेक्ष निसर्गजं.प्रशस्तालोचनं न संभवति परोपदेशापेक्षं वाधिगमजं प्रशस्तालोचनवदिति युक्तं सम्यग्दर्शनस्य पृथग्लक्षणवचनं शब्दार्थव्यभिचारात्, तदव्यभिचारे तद्वन्नान्यस्य मत्यादेर्शानचारित्रवदेव / / इच्छा श्रद्धानमित्येके तदयुक्तममोहिनः। श्रद्धानविरहाशक्तेमा॑नचारित्रहानितः // 10 // न ह्यमोहानामिच्छास्ति तस्य मोहकार्यत्वादन्यथा मुक्तात्मनामपि तद्भावप्रसंगात् / अधिकरण आदि विशेषताओं को कहने वाले सूत्रों क द्वारा उन वाच्यार्थ के व्यभिचारों का परिहार कर दिया गया है। अर्थात् विचार करना ही मति नहीं है अपितु इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। शंका : सम्यग्दर्शन का लक्षण सूत्र कहना व्यर्थ है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के अधिगमज और निसर्गज इस कारण विशेष को बताने वाले सूत्र से वाच्यार्थ (देखना रूप अर्थ) का व्यभिचार दूर हो जाता है। समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि निसर्गज (परोपदेश के बिना होना) अधिगमज (परोपदेश से होना) कारण विशेष का सद्भाव तो समीचीन देखने में भी पाया जा सकताहै अतः शब्दार्थ का व्यभिचार अधिगमजादि कारण विशेष से दूर नहीं हो सकता, क्योंकि परोपदेश निरपेक्ष, स्वाभाविक, समीचीन, अवलोकन नहीं होता है, ऐसा संभव नहीं है। जैसे दूसरों के उपदेश से अधिगमज, प्रशस्त चक्षु प्रत्यक्ष (समीचीन अवलोकन) होता है। अतः वाच्यार्थ के साथ व्यभिचार होने से (शब्द का अर्थ देखने आदि में जाने से) सम्यग्दर्शन का पृथक् लक्षण कहना उपयुक्त है तथा जहाँ जिस वाच्यार्थ में व्यभिचार नहीं है, शब्द से ही अर्थ का प्रतिभास हो जाता है, वहाँ सम्यग्दर्शन के समान अन्य मतिज्ञान आदि का भी लक्षण सूत्र पृथक् नहीं कहा जाता। जैसे ज्ञान और चारित्र के लक्षण सूत्र पृथक् नहीं कहे गये हैं। अर्थात् जिन अर्थों के संज्ञा वाचक शब्द ही अपने अर्थ का भली प्रकार प्रतिपादन करते हैं, उनके लिए लक्षणसूत्र कहना निष्प्रयोजन है। 'इच्छापूर्वक श्रद्धान सम्यग्दर्शन है' मान्यता का खण्डन . कोई वादी इच्छापूर्वक श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं परन्तु यह कहना उचित नहीं है क्योंकि इच्छा श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहने पर अमोही (केवली) के सम्यग्दर्शन के अभाव का प्रसंग आयेगा। क्षीणमोही के इच्छा का अभाव होता है और केवली के सम्यग्दर्शन का अभाव होने से केवली के ज्ञानचारित्र की भी हानि का प्रसंग आता है // 10 // अमोही (केवली) के इच्छा नहीं है क्योंकि इच्छा तो मोह का कार्य है। यदि इच्छा मोह का कार्य नहीं है, तो मुक्तात्मा के भी इच्छा के सद्भाव का प्रसंग आता है।