________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 9 संक्षेपतस्त्रिविधमिथ्यौदर्शनव्यवच्छेदादुपजायमानं सम्यगिति विज्ञापयते। ज्ञानमप्येवमेव सम्यगिति निवेदितं, तस्य मोहादिव्यवच्छेदेन तत्त्वार्थाध्यवसायस्य व्यवस्थापनात् / तर्हि सूत्रकारेण सम्यग्ज्ञानस्य लक्षणं कस्माद्भेदेन नोक्तम् ?सामर्थ्यादादिसूत्रे तन्निरुक्त्या लक्षितं यतः। चारित्रवत्ततो नोक्तं ज्ञानादेर्लक्षणं पृथक् // 7 // यथा पावकशब्दस्योच्चारणात् संप्रतीयते। तदर्थलक्षणं तद्वज्ज्ञानचारित्रशब्दनात् // 8 // ज्ञानादिलक्षणं तस्य सिद्धेर्यत्नांतरं वृथा / शब्दार्थाव्यभिचारेण न पृथग्लक्षणं क्वचित् // 9 // नन्वेवं मत्यादीनां पृथग्लक्षणसूत्रं वक्तव्यं शब्दार्थव्यभिचारादिति न चोद्यं, 'कारणादिविशेषसूत्रैस्त (अज्ञान), संशय और विपरीत के भेद से मिथ्यात्व तीन प्रकार का है। इन तीनों मिथ्यात्वदर्शन के व्यवच्छेद से उत्पन्न सम्यग्दर्शन 'सम्यक्' शब्द से जाना जाता है अर्थात् दर्शन के साथ 'सम्यक्' विशेषण से इन तीनों मिथ्यादर्शनों का उच्छेद हो जाता है। . इसी प्रकार ज्ञान भी 'सम्यक्' विशेषण से विशिष्ट है, ऐसा कथन किया है क्योंकि मोह, संशय और विपरीतता से रहित तत्त्वार्थ का निर्णय करने वाले ज्ञान का मोह, संशय और अनध्यवसाय के व्यवच्छेद (विनाश) से ही व्यवस्थापन (सम्यग्निर्णय) होता है। शंका : क्या सम्यग्दर्शन के समान ही सम्यग्ज्ञान का लक्षण है? सूत्रकार ने सम्यग्ज्ञान का लक्षण भेद (पृथक्) रूप से क्यों नहीं कहा? समाधान : इस शंका का आचार्य उत्तर देते हैं . जैसे आदि (प्रथम) सूत्र में कथित चारित्र का लक्षण उसकी निरुक्ति (यथार्थ नाम) के सामर्थ्य से जाना जाता है, उसी प्रकार ज्ञानादि का भी लक्षण 'ज्ञान' इस नाम से जाना जाता है। अर्थात् सम्यक् स्व में चरण (आचरण) सम्यक्चारित्र जाना जाता है। उसी प्रकार सम्यक् , जैसे का तैसा स्व-पर का ज्ञान (जानना) सम्यक् ज्ञान है। यह सम्यग्ज्ञान शब्द से जाना जाता है। अत: ज्ञानादि का पृथक् लक्षण नहीं कहा गया है। जैसे ‘पावक' इस शब्द का उच्चारण करने से पवित्र करने वाली अग्नि का ज्ञान हो जाता है उसी प्रकार ज्ञान और चारित्र शब्द का उच्चारण करने पर उनके लक्षण (स्वरूप) का ज्ञान हो जाता है। अत: ज्ञानादि के लक्षण की सिद्धि हो जाने से पुन: उसके सिद्ध करने का प्रयत्न करना व्यर्थ है, क्योंकि शब्दार्थ के साथ स्व का व्यभिचार होने से, लक्षण का ज्ञान होने से कहीं भी पृथक् लक्षण नहीं कहा जाता है / / 7-8-9 // शंका : ‘यदि वाच्यार्थ के साथ लक्षण नहीं जाना जाता हो तो उसका लक्षण कहना चाहिए' ऐसा है तो मतिज्ञानादि के पृथक् लक्षण सूत्र कहना चाहिए क्योंकि इसमें वाच्यार्थ के साथ व्यभिचार आता है अर्थात् ‘मति' ऐसा कहने से शब्दार्थ ‘मनन' होता है, मतिज्ञान के वास्तविक लक्षण का प्रतिभास नहीं होता? समाधान : ऐसो शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि उनके कारण (इन्द्रिय और मन) भेद (अवग्रहादि)