________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 28 तदिति सामान्याभिधायिनी प्रकृतिः सर्वनामत्वात्, तदपेक्षत्वात्प्रत्ययार्थस्य भावसामान्यसंप्रत्ययस्तत्त्ववचनात्, तस्य भावस्तत्त्वमिति, न तु गुणादिसंप्रत्ययस्तदनपेक्षत्वात् प्रत्ययार्थस्य / तत्र तत्त्वेनार्यमाणस्तत्त्वार्थ इत्युक्ते सामर्थ्याद्गम्यते यत्त्वेनावस्थित इति, यत्तदोर्नित्यसंबंधात् / तेनैतदुक्तं भवति, यत्त्वेन जीवादित्वेनावस्थितः प्रमाणनयैर्भावस्तत्त्वेनैवार्यमाणस्तत्त्वार्थः सकलो जीवादिर्न पुनस्तदंशमात्रमुपकल्पितं कुतश्चिदिति / ततोन्यस्तु सर्वथैकांतवादिभिरभिमन्यमानो मिथ्यार्थस्तस्य प्रमाणनयैस्तथार्यमाणत्वाभावादिति स्वयं प्रेक्षावद्भिर्गम्यते किं नश्चिंतया // मोहारेकाविपर्यासविच्छेदात्तत्र दर्शनम् / सम्यगित्यभिधानात्तु ज्ञानमप्येवमीरितम् // 6 // तत्र तत्त्वार्थे कस्यचिदव्युत्पत्तिर्मोहोध्यवसायापाय इति यावत्। चलिता प्रतिपत्तिरारेका, किमयं जीवादिः किमित्थमिति वा धर्मिणि धर्मे वा क्वचिदवस्थानाभावात्। अतस्मिंस्तदध्यवसायो विपर्यासः / इति ___तत्त्व शब्द प्रकृति अपेक्षा भाव सामान्य वाचक है, सर्वनाम होने से। 'तत्' उस विवक्षित पदार्थ का जो भाव है परिणाम है वह तत्त्व है अत: तत्त्व शब्द के प्रत्यय अर्थ से सामान्य भावों का ज्ञान होता है, “तस्य भावस्तत्त्वं" उसका भाव तत्त्व कहलाता है। इस प्रकार तत्त्व शब्द से गण, अर्थ पर्याय. व्यञ्जन पर्याय आदि विशेषों का ज्ञान नहीं होता क्योंकि तत् प्रत्ययार्थ के विशेष की अपेक्षा नहीं है। (यह भाव वाची है अत: इसमें भाव सामान्य की अपेक्षा है) इस सूत्र में “तत्त्व के द्वारा जो गम्य है वा तत्त्व से जाना जाता है वह तत्त्वार्थ है" ऐसा कहने पर सूत्र के सामर्थ्य से यह जाना जाता है कि जो पदार्थ जिस स्वभाव से अवस्थित है, उसका उसी रूप से होना तत्त्वार्थ है क्योंकि यत् जो , तत् वह, यत् और तत् का नित्य सम्बन्ध है, एक के होने पर दूसरा होता ही है अतः तत्त्वार्थ का अर्थ है कि जिन जीवादि स्वरूप से पदार्थ अवस्थित है उसी स्वभाव से प्रमाण नय के द्वारा जाने गये वे तत्त्वार्थ हैं अतः सभी जीव, अजीव, आस्रव, बंध आदि पदार्थ तत्त्व हैं। ___ अज्ञानियों के द्वारा कल्पित उनका नित्य आदि एक अंश मात्र तत्त्वार्थ नहीं हो सकता, उनके अंश में अर्थपना होना किसी प्रकार भी संभव नहीं है अत: सामान्य विशेषात्मक जीवादि पदार्थों से भिन्न सर्वथा नित्यादि एकान्तवादियों के द्वारा अभिमान्य (कथित) तत्त्व मिथ्यार्थ है क्योंकि उसके प्रमाण और नय के द्वारा वस्तुस्थिति अनुसार ज्ञायमानत्व (समीचीन रूप से कथितत्व ) का अभाव है, इस बात को विद्वान् स्वयं जानते हैं, हमारी विशेष चिंता से क्या प्रयोजन है। 'सम्यक्' विशेषण का अभिप्राय ___इस सूत्र में 'सम्यक्' इस शब्द के अभिधान (कथन वा ग्रहण) से मोह (अनध्यवसाय), संशय और विपरीतता रहित दर्शन (श्रद्धान) सम्यग्दर्शन कहा गया है तथा इस 'सम्यक्' शब्द का ज्ञान के साथ प्रयोग करके अनध्यवसाय, संशय, विपर्यय रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, ऐसा कथन करना चाहिए // 6 // उस तत्त्वार्थ के विषय में किसी के अव्युत्पत्ति (अज्ञान) मिथ्यात्व है जिसमें मोह है और अध्यवसाय का अपाय है अर्थात् अनध्यवसाय है। अव्युत्पन्न-हिताहित के विवेक से रहित होने से अज्ञान रूप है। चलित प्रतिपत्ति संशय मिथ्यात्व कहलाता है। जिसमें यह जीव है ? या अजीव है ? यह क्या है ? इस प्रकार धर्म और धर्मी में कहीं पर अवस्थान (निश्चय) का अभाव रहता है अर्थात् पदार्थ का निर्णय नहीं होता / अतद् वस्तु में तत् रूप का विपरीत निश्चय (निर्णय) होना विपरीत मिथ्यात्व है। इस प्रकर संक्षेप में अव्युत्पन्न