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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 7 तत्त्वश्रद्धानमित्यस्तु लघुत्वादतिव्याप्त्यव्याप्त्योरसंभवादित्यपरः / सोपि न परानुग्रहबुद्धिस्तत्त्वशब्दार्थे संदेहात् / तत्त्वमिति श्रद्धानं तत्त्वस्य वा तत्त्वे वा तत्त्वेन वेत्यादिपक्ष: संभवेत् क्वचिनिर्णयानुपपत्तेः। न हि तत्त्वमिति श्रद्धानं तत्त्वश्रद्धानमित्ययं पक्ष: श्रेयान् “पुरुष एवेदं सर्वं नेह नानास्ति किंचन" इति सर्वैकत्वस्य तत्त्वस्य, ज्ञानाद्वैतादेर्वा श्रद्धानप्रसंगात् / नापि तत्त्वस्य तत्त्वे तत्त्वेन वा श्रद्धानमिति पक्षाः संगच्छंते कस्य कस्मिन् वेति प्रश्नाविनिवृत्तेः। तत्त्वविशेषणे त्वर्थे श्रद्धानस्य न किंचिदवा दर्शनमोहरहितस्य पुरुषस्वरूपस्य वा तत्त्वार्थश्रद्धानशब्देनाभिधानात्, सरागवीतरागसम्यग्दर्शनयोस्तस्य सद्भावादव्याप्तेः स्फुटं विध्वंसनात् / कथं तर्हि तत्त्वेनार्थो विशेष्यते ? इत्युच्यते;यत्त्वेनावस्थितो भावस्तत्त्वेनैवार्यमाणकः / तत्त्वार्थः सकलोन्यस्तु मिथ्यार्थ इति गम्यते // 5 // कोई कहता है- सूत्र में लाघवता होने से तथा अव्याप्ति एवं अतिव्याप्ति दोषों की असम्भवता होने से तत्त्वश्रद्धानं' ऐसा सूत्र बनाना चाहिए। आचार्य विद्यानन्दी कहते हैं कि लाघवता (सूत्र में मात्रा कम) होने से 'तत्त्वश्रद्धानं' ऐसा सूत्र बनाना चाहिए, कहने वाला परोपकारबुद्धि वाला नहीं है, क्योंकि ऐसा बनाने से अर्थ में संशय हो जाता है तत्त्व का श्रद्धान, तत्त्व में श्रद्धान अथवा तत्त्व के द्वारा श्रद्धान आदि अनेक अर्थ होने की संभावना है, कहीं पर भी निर्णय नहीं हो सकता। अर्थात् अकेले तत्त्व शब्द का उच्चारण करने से “तत्त्व है" इस प्रकार श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है या तत्त्व का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है अथवा “तत्त्व में श्रद्धान करना” किंवा तत्त्व के द्वारा श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, इत्यादि अनेक पक्ष संभव हैं; किसी एक अर्थ का निर्णय नहीं हो सकता / इसमें तत्त्वमिति' 'तत्त्व' है, ऐसा श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, यह पक्ष तो श्रेयस्कर नहीं है। क्योंकि ब्रह्माद्वैतवादी कहता है, ‘पुरुष ही सब कुछ है, वही तत्त्व है अन्य नाना कुछ भी नहीं हैं, उसके श्रद्धान करने का वा ज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध कहते हैं “सबका एकपना ही वस्तुभूत तत्त्व पदार्थ है, अन्य कुछ नहीं' इस ज्ञानाद्वैत के श्रद्धान करने का प्रसंग आता है अर्थात् ब्रह्माद्वैत एवं ज्ञानाद्वैत का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, ऐसा अर्थ होने से लक्षण सदोष होता है। तथा तत्त्व का श्रद्धान, तत्त्व में श्रद्धान और तत्त्व के द्वारा श्रद्धान ऐसी षष्ठी, तत्पुरुष सप्तमी एवं तृतीया तत्पुरुष समास करना भी श्रेष्ठ नहीं है क्योंकि ऐसा करने पर किस का श्रद्धान, किस तत्त्व में श्रद्धान और किस तत्त्व के द्वारा श्रद्धान इत्यादि प्रश्नों की निवृत्ति नहीं हो सकती। . 'तत्त्व' विशेषण सहित अर्थ कहने पर, तत्त्व से निर्णीत अर्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन का लक्षण कहने पर सम्यग्दर्शन का लक्षण निर्दोष होता है, इसमें कोई दोष नहीं रहता। क्योंकि दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से रहित पुरुषस्वरूप का तत्त्वार्थ श्रद्धान शब्द से अभिधान होने से सराग वीतराग दोनों सम्यग्दर्शनों में इस लक्षण का सद्भाव होने से अव्याप्ति दोष का स्फुटरूप से विध्वंस हो जाता है। अर्थात् तत्त्व से निर्णीत अर्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन का लक्षण सराग-वीतराग दोनों सम्यग्दर्शनों में जाता ह अत: अतिव्याप्ति एवं अव्याप्ति दोष से रहित है। प्रश्न : तत्त्वरूप से निर्णीत अर्थ की क्या विशिष्टता है? ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं- जो पदार्थ जिस प्रकार से अवस्थित है, वह उसी प्रकार गम्यमान होता है, वह सकल तत्त्वार्थ है, उससे अन्य सर्व मिथ्यार्थ जाना जाता है, कहा जाता है। अर्थात् स्वभाव से भिन्न कल्पित जानना मिथ्यार्थ है, वस्तु के स्वभाव का श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है, अन्य कल्पना करके वस्तु का श्रद्धान सम्यग्दर्शन नहीं है, अपितु मिथ्यादर्शन है॥५॥
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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