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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 6 विशेषे अभावे चार्थे श्रद्धानं सम्यग्दर्शनस्य लक्षणमव्यापि प्रसज्यते, सर्वस्याभिधेयत्वाभावाद् व्यंजनपर्यायाणामेवाभिधेयतया व्यवस्थापितत्वादर्थपर्यायाणामाख्यातुमशक्तेरननुगमनात् संकेतस्य तत्र वैयर्थ्याद् व्यवहारासिद्धेर्नाभिधेयस्यार्थस्य श्रद्धानं तल्लक्षणं युक्तं / नापि विशेषस्य सामान्यश्रद्धानस्य दर्शनत्वाभावप्रसंगात्। तथैवाभावस्यार्थस्य श्रद्धानं न तल्लक्षणं भावश्रद्धानस्यासंग्रहादव्याप्तिप्रसक्तेः / नन्वेवमर्थग्रहणादिवत्तत्त्ववचनादपि कथमभिधेयविशेषाभावानां निवृत्तिस्तेषां कल्पितत्वाभावादिति चेत् न, अभिधेयस्य शब्दनयोपकल्पितत्वाद्विशेषस्य ऋजुसूत्रोपकल्पितत्वादभावस्य च धनप्रयोजनवत्कल्पितत्वसिद्धेस्तावन्मात्रस्य सकलवस्तुत्वाभावाद्वस्त्वेक देशतया स्थितत्वात् / तथा अभिधेय (वाच्य) विशेष और अभाव अर्थ में भी अर्थ शब्द का प्रयोग होता है। अत: उनका श्रद्धान सम्यग्दर्शन, यह लक्षण भी अव्याप्ति दोष से दूषित है। जैसे सर्व पदार्थ के अभिधेयत्वं (शब्द के द्वारा वाच्यत्व) का अभाव है क्योंकि व्यञ्जन पर्यायों के ही वाच्यता के द्वारा निरूपण करना व्यवस्थित है, अर्थपर्यायों का वचन के द्वारा कथन करना शक्य नहीं है क्योंकि वहाँ संकेत का अनुगम नहीं है। वाच्यवाचक सम्बन्ध संकेत का अनुगमन करने वाले होते हैं अर्थात् अन्य पदार्थों के सादृश्य को लेकर ही शब्दों की प्रवृत्ति होती है।(जैसे घट शब्द सुनकर घट सदृश अन्य घट में भी घट शब्द का प्रयोग हो जाता है।) तथा अर्थपर्याय में व्यवहार की असिद्धि होने से संकेत की व्यर्थता होती है। अर्थात्-अर्थपर्याय प्रतिक्षण विलक्षण ही उत्पन्न होती है वा संकेत काल में वे सूक्ष्म पर्यायें हमारे प्रत्यक्ष ही नहीं हैं; उनका वचन के द्वारा कथन कैसे हो सकता है? अत: वे अभिधेय नहीं हैं परन्तु उनका श्रद्धान सम्यग्दृष्टि को अवश्य है अतः अभिधेय अर्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, ऐसा सम्यग्दर्शन का लक्षण कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जिस समय सम्यग्दृष्टि अनभिधेय (वचन के अगोचर) तत्त्व का चिंतन करता है, उस समय वह लक्षण घटित नहीं होता। अत: वह अव्याप्ति दोष से दूषित लक्षण है। विशेष का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि सामान्य का श्रद्धान करने वाले के सम्यग्दर्शन के अभाव का प्रसंग आता है। अर्थात् 'अर्थ' का अर्थ विशेष है और विशेष का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, ऐसा कहने से सामान्य श्रद्धान सम्यग्दर्शन नहीं होता परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव विशेष के साथ सामान्य का भी श्रद्धान करता है। क्योंकि सामान्य और विशेष दोनों ही वस्तु के तदात्मक अंश हैं। उसी प्रकार अभाव रूप अर्थ का श्रद्धान करना भी सम्यग्दर्शन का दोषयुक्त लक्षण है। इस लक्षण में भी भावरूप श्रद्धान का संग्रह न होने से अव्याप्ति दोष का प्रसंग आता है। शंका : जैसे अकेले अर्थ शब्द का ग्रहण करने से अभिधेय, विशेष और अभाव की निवृत्ति होती है वैसे तत्त्व' के ग्रहण करने से अभिधेय, विशेष और अभाव का निराकरण कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता, क्योंकि अभिधेय आदि के भी कल्पितत्व का अभाव है। समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि धन एवं प्रयोजन के समान अभिधेयादि में भी कल्पितपना है। जैसे अभिधेय का शब्दनय की अपेक्षा कल्पितत्व है, विशेष के ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा कल्पितपना है और अभाव के परचतुष्टय की अपेक्षा कल्पितपना है क्योंकि निरपेक्ष अभिधेय विशेष और अभाव वस्तु का स्वभाव नहीं है। किन्तु अर्थ में अभिधेयपना आदि वस्तु के एकदेश रूप से स्थित हैं। अत: अर्थ को तत्त्व विशेषण लगा देने से एकान्त अभिधेय आदि का निराकरण हो जाता है और इससे अव्याप्ति दोष दूर हो जाने से सम्यग्दर्शन का लक्षण दोषरहित हो जाता है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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