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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *5 जातेन यो न विद्वान्न धार्मिक'' इति प्रयोजनवाचिनोर्थशब्दात् प्रयोजनं श्रद्दधतोपि सदृष्टित्वापत्तेः।धनप्रयोजनयोराभिप्रायो मोहोदयादवास्तव एव प्रक्षीणमोहानामुदासीनानामिव ममेदं स्वं धनं प्रयोजनं चेति संप्रत्ययानुपपत्तेः। सुवर्णादेर्देशकालनरांतरापेक्षायां धनप्रयोजनत्वाप्रतीतेर्वस्तुधर्मस्य तदयोगात्सुवर्णत्वादिवदिति के चित् / तेषां क्रोधादयोप्यात्मनः पारमार्थिका न स्युर्मोहोदयनिबंधनत्वाद्धनप्रयोजनयोराभिप्रायवत्। तेषामौदयिकत्वेन वास्तवत्वमिति चेत्, अन्यत्र समानं / वस्तुस्वरूपं धनं प्रयोजनं वा न भवतीति चेत्, सत्यं, वैश्रसिकत्वापेक्षया तस्य वस्तुरूपत्वव्यवस्थानासंभवात्। परोपाधिकृतत्वेन तु तस्य वास्तवत्वमनिषिद्धमेवेति नानर्थत्वं, येनार्थग्रहणादेव तन्निवर्तनं सिध्द्येत् / तथाभिधेये "उस पुत्र के उत्पन्न होने से क्या अर्थ (प्रयोजन) है जो धार्मिक नहीं है और विद्वान् भी नहीं है।" इस प्रकार प्रयोजनवाची 'अर्थ' शब्द से प्रयोजन का श्रद्धान करने वाले के भी सम्यग्दर्शनत्व का प्रसंग आयेगा। . धन, प्रयोजन में अर्थ का अभिप्राय मोह कर्म के उदय से होता है अत: वास्तविक नहीं है। जैसे उदासीनों के ‘यह धन, प्रयोजन मेरे हैं।' इस प्रकार का संप्रत्यय (ज्ञान) नहीं होता, उसी प्रकार प्रक्षीणमोही के भी यह धन, प्रयोजन मेरा है' इत्यादि रूप विकल्प नहीं होता तथा देश (भोगभूमि), काल (सुषमादि), नर (धनाढ्यादि) की अपेक्षा से सुवर्ण आदि में धनप्रयोजनत्व आदि की अप्रतीति है। अर्थात् भोगभूमि आदि के मनुष्यों के धन से कोई प्रयोजन नहीं रहता अत: सुवर्णत्व आदि के समान अर्थ में वस्तु धर्म की अयोगता है अर्थात् धन प्रयोजनभूत वस्तु नहीं है, ऐसा कोई कहते हैं अर्थात् धनादि मोह के उदय से प्रयोजनभूत हैं, अन्यथा नहीं। .. आचार्य उनको उत्तर देते हैं कि जैसे 'धन मेरा प्रयोजनीभूत है'-यह भाव मोहनीय कर्म के उदय से होने से अपरमार्थिक है, उसी प्रकार उनके क्रोधादिक भाव भी आत्मा के अपरमार्थिक होंगे-क्योंकि वे भी मोहनीय कर्म के उदय के कारण से होते हैं। क्रोधादिक भाव औदयिक होने से आत्मा के हैं और वास्तविक हैं, ऐसा भी कहना उचित नहीं है। क्योंकि ऐसा वास्तविकपना तो अन्यत्र भी समान रूप से लागू होता है। अर्थात् स्वर्ण मेरा धन है, स्वर्ण प्राप्त करना मेरा प्रयोजन है, ऐसा प्रत्यय (विज्ञान) चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से भी होता है। अतः यह भी वास्तविक है। कोई कहता है- “धन और प्रयोजन वस्तु स्वरूप (वास्तविक) नहीं हैं अर्थात् रागादिक वास्तविक हो सकते हैं, परन्तु धन आदि वास्तविक नहीं हैं। ... उत्तर : “धनादिक वस्तु का स्वरूप नहीं हैं।" यह तुम्हारा कहना सत्य है क्योंकि स्वाभाविक परिणाम की अपेक्षा स्वर्ण के वस्तुरूपत्व व्यवस्थान की असंभवता है परन्तु पर-उपाधिकृतत्व निमित्त की अपेक्षा धन और प्रयोजन के वास्तवपने का निषेध नहीं है। अत: सर्वथा धनत्व और प्रयोजनत्व अनर्थ ही नहीं है अर्थात् कथंचित् अर्थरूप (वास्तविक) भी है। यदि सर्वथा धनादि अनर्थ होते तो सूत्र में अर्थ ग्रहण करने से अनर्थ की निवृत्ति सिद्ध हो जाती। अर्थात् धन और प्रयोजन अर्थ हैं, इनका श्रद्धान करना भी सम्यग्दर्शन हो जाने से अतिव्याप्ति दोष आता (यह लक्षण मिथ्यादृष्टि में भी चला जाता) अत: उसका निराकरण करने के लिए अर्थपद का विशेषण, तत्त्व कहा गया है। तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है (अर्थ श्रद्धान नहीं)।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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