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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 4 श्रेयः, व्यवहारवत्। सोनर्थश्चेत्, कथं सर्वोर्थ एवेत्येकांत: सिध्द्येत् ? सर्वोनर्थ एवेत्येकांतोपि न साधीयान्, तद्व्यवस्थापकस्यानर्थत्वे ततस्तत्सिध्ययोगादर्थत्वे सर्वानर्थतैकांतहानेः / संविन्मात्रमर्थानर्थविभागरहितमित्यपि संविन्मात्रस्यैवार्थत्वात्ततोन्यस्यानर्थत्वसिद्धेः / सर्वस्याप्यानर्थविभागसिद्धेरवश्यंभावाद्युक्तमर्थग्रहणमनर्थश्रद्धाननिवृत्त्यर्थं / कल्पितार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमेवं स्यात्ततः सैवातिव्याप्तिरिति, चेत् न, तत्त्वविशेषणात्। नन्वर्थग्रहणादेव कल्पितार्थस्य निवृत्तेस्तस्यानर्थत्वात्व्यर्थं तत्त्वविशेषणमिति चेत् न, धनप्रयोजनाभिधेयविशेषाभावानामर्थशब्दवाच्यानां ग्रहणप्रसंगात् / न च तेषां श्रद्धानं सम्यग्दर्शनस्य लक्षणं युक्तं, धर्मादर्थो धनमिति श्रद्दधानस्याभव्यादेरपि सम्यग्दर्शनप्रसक्तेः / “कोर्थः पुत्रेण यदि अविद्या विशेष वस्तुभूत अर्थ है तो उस वस्तुभूत अविद्या से होने वाला निबन्धन व्यवहार अवास्तविक कैसे होगा। जैसे सर्व अर्थ ही है, इस व्यवहार के समान अर्थात् जैसे सर्व अर्थ है, यह व्यवहार अवास्तविक नहीं है उसी प्रकार यह भी अवास्तविक नहीं होगा। यदि कहो कि 'सर्व अनर्थ ही है' तो 'सर्व अर्थ ही है' ऐसा एकान्त सिद्ध कैसे हो सकता है? सर्व अनर्थ (अपदार्थ) ही है, इस प्रकार का एकान्त भी सिद्ध नहीं होता अर्थात् पदार्थ है ही नहीं, ऐसा मिथ्याभास होता है। ऐसा भी एकान्त सिद्ध नहीं होता। क्योंकि, उस अनर्थ के व्यवस्थापक प्रमाण के भी अनर्थत्व हो जाने पर उस प्रमाण से अनर्थत्व की सिद्धि का अयोग होता है। तथा प्रमाण को अर्थत्व मान लेने पर ‘सर्व पदार्थ अनर्थत्व है' इस एकान्त मान्यता की हानि होती है। “अर्थ - अनर्थ के विभाग से रहित संवेदन मात्र (विज्ञान) ही है।'' 'संसार में पदार्थ नहीं हैं केवल विज्ञान मात्र है' ऐसा कहना भी श्रेष्ठ नहीं है क्योंकि विज्ञान मात्र को अर्थत्व (वास्तविक) स्वीकार कर लेने पर प्रमाण से भिन्न सर्व पदार्थों में अनर्थत्व की सिद्धि हो जाती है। अतः सभी पदार्थों की विवक्षा से अर्थत्व और अनर्थत्व का विभाग अवश्य ही सिद्ध हो जाता है। इसलिए सूत्र में 'अर्थ' का ग्रहण अनर्थ-श्रद्धान की निवृत्ति के लिए है। 'तत्त्व' विशेषण देने का हेतु ‘कल्पित अर्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है' ऐसा होने पर वही अतिव्याप्ति दोष है अर्थात् 'अर्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन है' ऐसा सम्यग्दर्शन का लक्षण अतिव्याप्ति दोष से दूषित है? ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि अर्थ के साथ तत्त्व' यह विशेषण दिया गया है। प्रश्न : अर्थग्रहण से ही कल्पित अर्थ की निवृत्ति हो जाने से तत्त्व विशेषण निरर्थक है कयोंकि अर्थ ही वास्तविक है, शेष अवास्तविक है। उत्तर : तत्त्व विशेषण व्यर्थ नहीं है क्योंकि तत्त्व विशेषण न होने से धन, प्रयोजन, अभिधेय विशेष, अभाव (निवृत्ति) आदि अर्थ शब्द के सर्व वाच्यों के ग्रहण का प्रसंग आता है। परन्तु धन आदि का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन का ठीक लक्षण नहीं है क्योंकि धर्म से अर्थ, धन प्राप्त होता है। ऐसा श्रद्धान करने वाले अभव्य मिथ्यादृष्टि के भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का प्रसंग आता
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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