________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 3 लक्षणस्य ततो नातिव्याप्तिर्दृग्मोहवर्जितम् / पुंरूपं तदिति ध्वस्ता तस्याव्याप्तिरपि स्फुटम् // 4 // श्रद्धानं सम्यग्दर्शनमित्युच्यमानेऽनर्थश्रद्धानमपि तत्स्यादित्यतिव्याप्तिर्लक्षणस्य माभूत् अर्थग्रहणात् ।न चार्थानर्थविभागो दुर्घट: प्रमाणोपदर्शितस्यार्थत्वसिद्धेरितरस्यानर्थत्वव्यवस्थानात्। सर्वो वाग्विकल्पगोचरोर्थ एव प्रमाणोपदर्शितत्वादन्यथा तदनुपपत्तेः, प्रमाणोपदर्शितत्वं तु सर्वस्य विकल्पवाग्गोचरत्वान्यथानुपपत्तेः ततो नानर्थः कश्चिदित्यन्ये / तेप्येवं प्रष्टव्याः। सर्वोनर्थ एवेति पक्षोऽर्थे स्याद्वा न वा ? स्याच्चेत्सर्वस्यार्थत्वव्याघातो दुर्निवारः, न स्याच्चेत्तेन व्यभिचारी हेतुर्वाग्विकल्पगोचरत्वेन प्रमाणोपदर्शितत्वस्यार्थत्वमंतरेणापि भावात् / यदि पुन: प्रमाणोपदर्शित एव न भवति तदा विकल्पवाग्गोचरत्वं तेनानैकांतिकं साध्याभावेपि भावात् / यदि पुन:सर्वोनर्थ एवेति पक्षो विकल्पवाग्गोचरो न भवतीति ब्रुवते तदा स्ववचनविरोधः। कुतश्चिदविद्याविशेषात् सर्वोनर्थ इति व्यवहारो न तात्त्विक इति चेत्, स त_विद्याविशेषोऽर्थोऽनर्थो वा ? यद्यर्थस्तदा कथमेतन्निबंधनो व्यवहारोऽतात्त्विक: स्यात्सर्वोर्थ एवेति इसलिए तत्त्वार्थ श्रद्धान' सम्यग्दर्शन का यह लक्षण अतिव्याप्ति दोष से रहित है। दर्शनमोह रहित सम्यग्दर्शन आत्मा का स्वरूप है, अत: “तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं” इस लक्षण से सम्यग्दर्शन के अव्याप्ति 1 दोष का भी निराकरण कर दिया गया है। अर्थात् तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन का लक्षण तीनों प्रकार के सम्यग्दर्शन में जाता है। अतः अव्याप्ति दोष से दूषित नहीं है॥४॥ अर्थ का ग्रहण 'अनर्थ' की निवृत्ति के लिए है . : श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, ऐसा कहने पर अनर्थों (अवास्तविक पदार्थों) का श्रद्धान भी सम्यग्दर्शनत्व को प्राप्त होगा, अतः लक्षण में अतिव्याप्ति दोष को दूर करने के लिए 'अर्थ' पद का ग्रहण किया गया है। तथा अर्थ और अनर्थ का विभाग दुर्घट (दुष्कर) भी नहीं है। क्योंकि प्रमाण के द्वारा निरूपित अर्थ के अर्थत्व और उससे विपरीत के अनर्थत्व प्रसिद्ध ही है। - दूसरा कोई कहता है कि प्रमाण के द्वारा उपदर्शित हो जाने से सर्व अर्थ ही वचन और विकल्प के गोचर हैं। अन्यथा (शब्द और विकल्प के गोचर न हों तो) प्रमाण के द्वारा उपदर्शित्व (कथित) नहीं हो सकता। सर्व ही पदार्थों के प्रमाण के द्वारा उपदर्शित्व है अत: सर्व पदार्थों के विकल्पवाग्गोचरत्व अन्यथा अनुपपत्ति है, इसलिए कोई अनर्थ नहीं है अर्थात् सर्व ही अर्थ हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि -उनको इस प्रकार पूछना चाहिए कि 'सर्व अनर्थ ही है' यह पक्ष अर्थ में है कि नहीं ? यदि अर्थ में यह पक्ष है तो सर्व के अर्थत्व का व्याघात दुर्निवार होगा। यदि यह पक्ष अर्थ में नहीं है तो वाग् विकल्प गोचरत्व से हेतु व्यभिचारी होगा क्योंकि प्रमाणोपदर्शित्व के अर्थत्व के बिना भी सद्भाव पाया जाता है। यदि वह अर्थ प्रमाणोपदर्शित ही नहीं होता है तो वाग विकल्प गोचरत्व हेतु अनैकान्तिक दोष से दूषित होगा क्योंकि साध्य अर्थ के अभाव में भी वाग् विकल्प गोचरत्व हेतु का सद्भाव पाया जाता है। यदि कहो कि सर्व अनर्थ (पदार्थ नहीं) ही है और वह विकल्प वचन के अगोचर होता है तो स्ववचन का विरोध होता है। अर्थात् सर्व अर्थ नहीं है, यह शब्द से बोला भी जा रहा है और विकल्प ज्ञान एवं वचन के गोचर भी कहा जा रहा है, अत: स्ववचन बाधित है। कोई कहता है- “सर्व अनर्थ है" इस प्रकार का व्यवहार किसी विशिष्ट अविद्या से होता है, वास्तविक नहीं है। तो हम कहते हैं कि वह अविद्या विशेष अर्थ (पदार्थ) है कि अनर्थ (अपदार्थ) है ? 1. पूरे लक्ष्य में नहीं जाने वाले लक्षण को अव्याप्त कहते हैं।