________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 214 कस्मान्न प्रकाशकं ? स्वरूपप्रकाशने योग्यतासद्भावात् / पररूपप्रकाशने तु तदभावादिति चेत् , प्रतिनियतार्थप्रकाशने सर्वार्थप्रकाशनाभावात् समः परिहारः / प्रतीत्यनतिलंघनस्याप्यविशेषात् संवृत्त्या सारूप्येपि संवेदनस्य सारूप्यादधिगतिरित्ययुक्तं , तस्य द्विष्ठत्वादेकत्रासंभवात् / ग्राह्यस्य स्वरूपस्य ग्राहकात् स्वरूपाद्भेदकल्पनया तस्य तेन सारूप्यकल्पनाददोष इति चेत् / तदपि ग्राह्यं ग्राहकं च स्वरूपं / यदि स्वसंविदितं तदान्यग्राह्यग्राहकस्वरूपकल्पने प्रत्येकमनवस्था / तदस्वसंविदितं चेत् कथं संवेदनस्वरूपमिति यत्किंचिदेतत् / न चायं दोषः समानः संवित्तिं स्वार्थेन घटयति सति प्रमाणे स्वावरणक्षयात् क्षयोपशमाद्वा तथास्वभावत्वात् प्रमाणस्य / तन्न सारूप्यमस्य प्रमाणमधिगतिः फलमेकांततोनान्तरं तत इति निश्चितम्॥ प्रकाशन की ही योग्यता है, पर पदार्थ के प्रकाशन की योग्यता का अभाव है, इसलिए वह परप्रकाशक नहीं है-तो स्याद्वादी कहते हैं कि-पट ज्ञान में स्वनियत पट को प्रकाशन करने की योग्यता का सद्भाव है-सर्व पदार्थों के प्रकाशन करने की योग्यता का अभाव है, अत: हमारा और तुम्हारा कथन समान ही है और दोषों का परिहार भी समान है और स्वावरण कर्म क्षयोपशम रूप योग्यता को मान लेने पर तो प्रतीतियों की उल्लंघना नहीं कराना हमारे और तुम्हारे समान ही हैं। संवृत्ति (व्यवहार) से कल्पित संवेदन की तदाकारता में भी तदाकारता से ही स्व का अधिगम होना मानना भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि तदाकारता (सदृशत्व) द्विष्ठत्व (दो में रहती) है। संयोग, सदृश आदि. दो पदार्थों का एक पदार्थ में रहना असंभव है। यदि बौद्ध कहे कि ग्राह्य और ग्राहक के भेद से स्वसंवेदन के दो अंश हैं, अत: ग्राह्य (आकार को अर्पण करने वाला) स्वरूप की ग्राहक (आकार को ग्रहण करने वाला) स्वभाव से भेद कल्पना करने से उसकी उसके साथ तदाकारता की कल्पना कर लेने पर कोई दोष नहीं आता है, तो जैनाचार्य कहते हैं कि स्वसंवेदन के दोनों ग्राह्य और ग्राहक स्वरूप यदि स्व का संवेदन करने वाले हैं, तब तो फिर इनमें दूसरे ग्राह्य ग्राहकत्व स्वरूप की कल्पना करनी पड़ेगी। इस प्रकार ग्राह्य और ग्राहकत्व प्रत्येक की कल्पना करने पर अनवस्था दोष आता है। यदि अनवस्था के भय से उन स्वसंवेदन के ग्राह्य-ग्राहक स्वरूपों को स्वसंविदित नहीं मानेंगे तो स्वसंवेदन को प्रत्यक्ष कैसे कहा जा सकेगा? अत: सौगत का निरूपण वस्तु के स्वरूप का वास्तविक कथन नहीं है। इसमें कुछ भी सार नहीं है, यद्वा तद्वा कथन है। तथा उक्त दोष बौद्धों के समान स्याद्वाद सिद्धान्त में लागू नहीं है, क्योंकि प्रमाणज्ञान संवित्ति को अपने विषय के साथ स्वावरणों के क्षय अथवा क्षयोपशम से संयोजन करा रहा है। ऐसा होने देने पर विषय और विषयी का स्वावरण क्षयोपशम स्वरूप योग्यता ही सम्बन्ध करा देती है-क्योंकि प्रमाण का ऐसा ही स्वभाव है इसलिए विषय की तदाकारता ही प्रमाण है और एकान्त रूप से प्रमाण से सर्वथा अभिन्न उस का फल है, ऐसा सिद्ध नहीं होता है यह निश्चित है।