________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 215 भिन्न एवेति चायुक्त स्वयमज्ञानताप्तितः / प्रमाणस्य घटस्यैव परत्वात् स्वार्थनिश्चयात् // 39 // यत्स्वार्थाधिगमादत्यंत भिन्नं तदज्ञानमेव यथा घटादि / तथा च कस्यचित्प्रमाणं न वाज्ञानस्य प्रमाणता युक्ता // चक्षुरादि प्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते / न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचितः सदा // 40 // चितस्तु भावनेत्रादेः प्रमाणत्वं न वार्यते / तत्साधकतमत्वस्य कथंचिदुपपत्तितः // 41 // साधकतमत्वं प्रमाणत्वेन व्याप्तं तदर्थपरिच्छित्तौ चक्षरादेरुपलभ्यमानं प्रमाणत्वं साधयतीति यदीष्यते तदा तद्र्व्यचक्षुरादि भावचक्षुरादि वा ? न तावद्र्व्यनेत्रादि तस्य साधकतमत्वासिद्धेः / न हि तत्साधकतम स्वार्थपरिच्छित्तावचेतनत्वाद्विषयवत् / यत्तु साधकतमं तच्चेतनं दृष्टं यथा विशेषणज्ञानं विशेष्यपरिच्छित्तौ / तथा स्व और अर्थ के अधिगम रूप फल से प्रमाण को सर्वथा भिन्न ही कहना युक्त नहीं है, क्योंकि प्रमाण अधिगम रूप-फल सर्वथा भिन्न मानने पर प्रमाण को घट के समान जड़पने की प्राप्ति होती है अर्थात् जो ज्ञानस्वरूप निश्चय से सभी प्रकार भिन्न है, वह जड़ है॥३९॥ इसको अनुमान से सिद्ध करते हैं-जो अपने और पर पदार्थों के अधिगम से पूर्ण रूप से अत्यन्त भिन्न है (हेतु), वह अज्ञान स्वरूप है (साध्य) जैसे घटादि तथा (उसी प्रकार) ज्ञान भी प्रमाण से सर्वथा भिन्न होने से किसी के भी प्रमाणता नहीं आ सकती क्योंकि अज्ञान के प्रमाणता युक्त नहीं है अर्थात् अज्ञान की निवृत्ति रूप प्रमिति चेतन ज्ञान के द्वारा ही साध्य है। : "चक्षु के द्वारा जाना जाता है, धूम से अग्नि का ज्ञान होता है, शब्द से श्रुतज्ञान होता है इस प्रकार अचेतन नेत्र आदि भी प्रमाण माने गए हैं" ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि उन अचेतन नेत्र आदिकों के प्रमिति का सर्वदा साधकतमत्व का अभाव है। चेतन स्वरूप नेत्र आदि भावेन्द्रियों को प्रमाणपना निषिद्ध नहीं है। क्योंकि उस प्रमिति क्रिया में प्रकृष्ट उपकारक करणत्व की सिद्धि भावेन्द्रियों में किसी-न-किसी अपेक्षा से हो जाती है, अर्थात् लब्धि और उपयोगात्मक भावेन्द्रियाँ चेतन स्वरूप हैं और चेतन को प्रमाणत्व अभीष्ट है।४०-४१॥ ___“प्रमिति के साधकतमपने की प्रमाण के साथ व्याप्ति है वह अर्थ की ज्ञप्ति में (ज्ञान में) साधकतमपना चक्षु आदि जड़ इन्द्रियों द्वारा उपलभ्यमान होता हुआ दृष्टिगोचर हो रहा है, अतः वह चक्षु आदि का प्रमाणपना सिद्ध करता है। यदि ऐसा कहते हो तब तो हम पूछते हैं कि वह अर्थ परिच्छित्ति (ज्ञान) का करणपना द्रव्य चक्षु आदि इन्द्रियों को मानते हो कि भाव चक्षु आदि को मानते हो? द्रव्य चक्षु, रसना आदि इन्द्रियाँ तो प्रमिति की साधकतम नहीं हैं, क्योंकि उनके अर्थज्ञान के प्रति साधकतमपने की असिद्धि है। नेत्र आदि द्रव्येन्द्रियाँ स्वार्थ परिच्छित्ति में साधकतम नहीं हैं क्योंकि द्रव्येन्द्रियाँ अचेतन हैं, जो अचेतन है, वे अर्थ परिच्छित्ति के साधकतम नहीं हैं- जैसे इन्द्रियों के विषय घट-पट आदि अचेतन पदार्थ प्रमिति के साधकतम नहीं हैं, जो अर्थ ज्ञान में साधकतम होता है, वह चेतन देखा गया है (वह चेतन होता है) जैसे चेतन विशिष्ट विशेषण ही, विशेष्य की परिच्छित्ति में साधकतम होता है। पौद्गलिक द्रव्य नेत्रादिक इन्द्रियाँ चेतन नहीं हैं अतः प्रमिति की साधकतम नहीं हैं जिससे कि वे प्रमाण सिद्धि कर सकती हों, अर्थात् द्रव्येन्द्रियाँ प्रमाण की सिद्धि नहीं कर सकती हैं। 1. नाम कर्म के निमित्त से होने वाली बाह्य चक्षु आदि इन्द्रियों की रचना द्रव्येन्द्रिय है और ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न अर्थ ग्रहण करने की शक्तिरूप लब्धि और तज्जन्य व्यापार रूप उपयोग भावेन्द्रिय है।