________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 213 कल्पने वानवस्थानात् कुतः संवित्तिसंभवः / स्वार्थेन घटयत्येनां प्रमाणे स्वावृतिक्षयात् // 37 // नायं दोषस्ततो नैव सारूप्यस्य प्रमाणता / नाभिन्नोधिगमस्तस्मादेकांतेनेति निश्चयः // 38 // स्वरूपे प्रतिनियमव्यवस्थापकत्वं संवेदनस्य सारूप्यापायेपि ब्रुवाणः कथमर्थे सारूप्यं ततः साधयेत् / निराकारस्य बोधस्य केनचिदर्थेन प्रत्यासत्तिविक भावात् सर्वैकवेदनापत्तिरित्ययुक्तं, स्वरूपसंवेदनस्यापि तथा प्रसंगात् / ननु च संवेदनमसंवेदनाद्भिन्नं स्वकारणात्तदुत्पन्नं स्वरूपप्रकाशकं युक्तमेव अन्यथा तस्यासंवेदनत्वप्रसक्तेरिति चेत् ,तीर्थसंवेदनमप्यनर्थसंवेदनाद्भिन्नं स्वहेतोरुपजातमर्थप्रकाशकमस्तु तस्यान्यथानर्थसंवेदनत्वापत्तिरिति समानं / सर्वस्यार्थस्य प्रकाशकं कस्मान्नेति चेत् , स्वसंवेदनमपि पररूपस्य से पदार्थों की संवित्ति होना कैसे संभव हो सकेगी ? (अर्थात् तदाकारता ज्ञान कराती है-यह घटित नहीं होता है।)अपितु स्वावरण कर्म के क्षयोपशम या क्षय से ज्ञान को अपने विषय के साथ सम्बन्ध करा देने वाले प्रमाण के मानने पर कोई दोष नहीं आता है, अर्थात् पट का ज्ञान पट को जानता है, इसका कारण पट ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम ही है, अत: बौद्धों के द्वारा स्वीकृत तदाकारता को प्रमाणता नहीं है। और न प्रमाण से सर्वथा एकान्त रूप से भिन्न अधिगम प्रमाण का फल है अत: स्वावरण क्षयोपशम लक्षण योग्यता ही प्रतिनियत अर्थ की व्यवस्था करती है॥३६-३७-३८॥ संवेदन (ज्ञान) के अपने स्वरूप में तदाकारता न होते हुए भी प्रतिनियत विषय की व्यवस्थापकता को कहने वाला उस प्रतिनियत विषय की व्यवस्थापकता से अर्थ में भी तदाकारता को कैसे सिद्ध करा सकेगा? अर्थात् नहीं करा सकता। निराकार ज्ञान का किसी अर्थ के साथ निकटता या दूरता का अभाव होने से सर्व पदार्थों का एक ज्ञान के द्वारा वेदन होने का प्रसंग आएगा, ऐसा कहना भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि बौद्ध सिद्धान्त में भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष को निराकार माना है अतः उस संवेदन प्रत्यक्ष के भी सम्पूर्ण पदार्थों के एक साथ ज्ञान होने का प्रसंग आयेगा। प्रश्न : अस्वसंवेदन से भिन्न स्वसंवेदन प्रत्यक्ष स्वकीय कारणों से उत्पन्न स्वरूप प्रकाशक है, यह युक्त ही है। अन्यथा (यदि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष को स्वप्रकाशक नहीं माना जाता है तो) उसके असंवेदन का प्रसंग आता है। उत्तर : जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो अनर्थ संवेदन से भिन्न स्वकीय क्षयोपशम आदि कारणों से उत्पन्न अर्थ संवेदन भी अर्थ का प्रकाशक हो जाता है अन्यथा (यदि अर्थसंवेदन में भी तज्जन्यता, तदाकारता आदि विशेषण लगाये जायेंगे तो) उसके अनर्थसंवेदन का प्रसंग आएगा। इस प्रकार बौद्ध सिद्धान्त का स्वसंवेदन और स्याद्वाद सिद्धान्त का अर्थ संवेदन दोनों समान ही हैं, दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं है। जब ज्ञान में विषयों का आकार ही नहीं है तो वह ज्ञान सभी पदार्थों का प्रकाशक क्यों नहीं होता है ? ऐसा सौगत के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्धों के द्वारा स्वीकृत निराकार स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान भी अन्य सभी पर पदार्थों का प्रकाशक क्यों नहीं होता है? यदि बौद्ध कहे कि स्वसंवेदन में स्वस्वरूप