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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*२१२ व्यभिचारात् न तदाकारत्वात्तद्व्यवस्थापकत्वं साध्यते / किं तर्हि तद्व्यवस्थापकत्वात्तदाकारत्वमिति चेन्न, स्वरूपव्यवस्थापकत्वेनानेकांतात् // प्रमाणं योग्यतामात्रात्स्वरूपमधिगच्छति / यथा तथार्थमित्यस्तु प्रतीत्यनतिलंघनात् // 35 // स्वरूपेपि च सारूप्यान्नाधिगत्युपवर्णनम् / युक्तं तस्य द्विनिष्ठत्वात् कल्पितस्याप्यसंभवात् // 36 // से (नील का आकार धारण करने से) नील संवेदन(ज्ञान) को नील विषय का व्यवस्थापक मान लेने पर क्षण क्षयादिक की व्यवस्थापना की आपत्ति आएगी, अर्थात् प्रतिक्षण नष्ट होने वाले पदार्थों के प्रतिबिम्ब को ग्रहण करने का विकल्प-संवेदन में हीन मानना पड़ेगा अन्यथा (यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो) तदाकार के द्वारा विषय व्यवस्था करने में अनैकान्तिक हेत्वाभास होगा अर्थात् पदार्थों के आकार को तो ज्ञान जानता है-उसी प्रकार क्षणक्षयादि के आकार का विकल्प भी ज्ञान में होता है, क्योंकि क्षणक्षयादि भी आकारवान है, परन्तु बौद्ध मत में क्षणक्षयादिक के आकार को ग्रहण करने वाला नहीं माना है। .. बौद्ध कहता है कि पदार्थ के आकार को ग्रहण करने रूप पदार्थ ज्ञान पदार्थ विषय की व्यवस्था करा देता है, इस प्रकार ज्ञान में तदाकारत्व से 'तत्' (उस) की व्यवस्था करा देने को सिद्ध नहीं किया गया प्रश्न : किसकी व्यवस्था सिद्ध की जाती है ? उत्तर : तत् (वह है उसकी) की व्यवस्था करा देने से ही ज्ञान तत् (पदार्थ) के आकार को धारण करने वाला है, इसलिए व्यभिचार नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि यह बौद्ध का कथन समीचीन नहीं हैक्योंकि ज्ञान के द्वारा स्वकीय स्वरूप की व्यवस्था करा देने रूप से अनैकान्तिक दोष आता ही है, अर्थात ज्ञान जिस पदार्थ की व्यवस्था करता है, उसका आकार अवश्य लेता है, यह व्याप्ति ठीक नहीं है क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष अपने ज्ञानस्वरूप का व्यवस्थापक तो है-परन्तु ज्ञान में ज्ञान का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता है। जिस प्रकार प्रमाण (ज्ञान) अपनी योग्यता मात्र से ही स्वकीय स्वरूप को जान लेता है, उसी प्रकार ज्ञान स्वकीय योग्यता से पदार्थों को भी जान लेता है, ऐसी प्रतीति होती है और प्रतीति के अनुसार ही वस्तु की व्यवस्था होती है, इससे प्रतीति का उल्लंघन भी नहीं होता है अर्थात् ज्ञान में विषयों का आकार मानने से प्रतीति अतिक्रम होता है, क्योंकि स्मृति ज्ञान के द्वारा मृत मनुष्य को जानने पर या भूतकालीन पदार्थ का स्मरण करने पर अथवा ज्योतिष शास्त्र के द्वारा सूर्य-चन्द्र के ग्रहण जानने में पदार्थ का आकार प्रतिबिम्बित नहीं होता है अत: ज्ञान को पदार्थ के प्रतिबिम्ब रहित मानने पर प्रतीति का उल्लंघन नहीं होता है॥३५॥ ज्ञान के स्वरूप में पदार्थों का तदाकार होने पर ही ज्ञान का अधिगम होता है-यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं है-क्योंकि तदाकारता द्विनिष्ठ (प्रतिबिम्ब्य और प्रतिबिम्बक दोनों में रहने वाला धर्म) है अत: कल्पित तदाकारता अकेले ज्ञान में असंभव है। यदि अकेले ज्ञान में तदाकार की कल्पना करते हैं तो अनवस्था दोष आता है अर्थात् जैसे प्रतिबिम्बक दर्पण में प्रतिबिम्ब्य दर्पण का आकार पड़ना माना जाएगा तो प्रतिबिम्ब्य दर्पण भी तो प्रतिबिम्बक हो जाएगा उसी प्रकार प्रतिबिम्बक ज्ञान में प्रतिबिम्ब्य ज्ञान का आकार पड़ना मानना पड़ेगा फिर उसको जानने के लिए दूसरा ज्ञान मानना पड़ेगा अतः अनवस्था दोष होने
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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