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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 211 नाप्यसारूप्यव्यावृत्तितः सारूप्यं अनधिगतिव्यावृत्तितोधिगति: संवेदनेनंशेपि वस्तुतो व्यवहियत इति युक्तं , दरिद्रेप्यराज्यव्यावृत्त्या राज्यं अनिंद्रत्वव्यावृत्त्या इंद्रत्वमित्यादिव्यवहारानुषंगात् / यदि पुनस्तत्र राज्यादेरभावात्तद्व्यावृत्तिरसिद्धा तदा संवेदनस्य सारूप्यादिशून्यत्वात् कथमसारूप्यादि-व्यावृत्तिः ? यतस्तन्निबंधनं सारूप्यकल्पनं तस्यात्र स्यात् / ततो न साकारो बोधः प्रमाणम् / / प्रतिकर्मव्यवस्थानस्यान्यथानुपपत्तितः। साकारस्य च बोधस्य प्रमाणत्वापवर्णनम् // 33 // क्षणक्षयादिरूपस्य व्यवस्थापकता न किम् / तेन तस्य स्वरूपत्वाद्विशेषांतरहानितः // 34 // यथैव हि नीलवेदनं नीलस्याकारं बिभर्ति तथा क्षणक्षयादेरपि तदभिन्नत्वाद्विशेषांतरस्य चाभावात् / ततो नीलाकारत्वान्नीलवेदनस्य नीलव्यवस्थापकत्वेक्षणक्षयादिव्यवस्थापकतापत्तिरन्यथा तदाकारण बौद्ध : असारूप्य व्यावृत्ति से सारूप्य और अनधिगति की व्यावृत्ति से अधिगति होती है, अतः वस्तुत: निरंश संवेदन में भी इस प्रकार का व्यवहार होता है। इस प्रकार भी बौद्धों का कथन करना युक्ति संगत नहीं है, क्योंकि यदि निरंश संवेदन में अनधिगत की व्यावृत्ति से अधिगत रूप फल का और असारूप्य व्यावृत्ति से सारूप्य का ज्ञान हो जाता है, तब तो दरिद्र पुरुष में अराज्य की व्यावृत्ति से राज्य और अनिंद्रत्व की व्यावृत्ति से इन्द्रत्व इत्यादि के व्यवहार का प्रसंग आयेगा। यदि कहो कि उस दरिद्र में राज्य आदि का अभाव होने से अराज्य व्यावृत्ति आदि की सिद्धि नहीं है तब तो आचार्य कहते हैं कि जब निरंश संवेदन सारूप्य, अधिगम आदि स्वभावों से शून्य है, तब उस निरंश संवेदन से असारूप्य व्यावृत्ति कैसे हो सकती है? जिससे कि उन व्यावृत्तियों को कारण मानकर उस संवेदन को प्रमाण रूप सारूप्य (तदाकार) की और अधिगम रूप फल की कल्पना करना हो सके अत: बौद्धों के द्वारा स्वीकृत साकार बौद्ध (ज्ञान) प्रमाण नहीं है। भावार्थ : आकार का अर्थ, स्व और अर्थ का विकल्प करना है, ऐसा ज्ञान तो प्रामाणिक है यह जैन सिद्धान्त है परन्तु आकार का अर्थ प्रतिबिम्ब को ग्रहण करना है ऐसा साकार ज्ञान प्रमाण नहीं है।... बौद्ध का कथन- ज्ञान को साकार माने बिना प्रतिनियत विषय को जानने की व्यवस्था नहीं हो सकती। इसलिए प्रतिबिम्ब को धारण करने वाले, साकार ज्ञान को प्रमाण कहा है // 33 // अर्थात् घट ज्ञान को घटाकार स्वीकार किये बिना घट ज्ञान, घट को ही जानता है, यह व्यवस्था नहीं हो सकती। - जैनाचार्य प्रत्युत्तर में कहते हैं-यदि ज्ञान तदाकार है तो ज्ञान क्षणिकत्व स्वर्ग, मन शक्तित्व आदि स्वरूप की व्यवस्था को क्यों नहीं करा देता है, उन क्षणक्षयादिक का उन नीलादिक के साथ अभेद होने के कारण ज्ञान में तदाकारता है, स्वस्वरूपता है। अन्य कोई विशेषता नहीं है॥३४॥ अर्थात् आत्मा की स्वर्ग प्रापण शक्ति को जानने के लिए भी आत्मज्ञान से भिन्न ज्ञान उपयोगी होते हैं। जिस प्रकार नील स्वलक्षण को जानने वाला निर्विकल्पक ज्ञान नील के आकार को धारण करता है, वैसे ही नील के स्वभाव स्वरूप क्षणिकत्व, अणुत्व आदि क्षणक्षयादिक के आकारों को भी धारण करता है, क्योंकि क्षणक्षयादि आकार ज्ञान से अभिन्न हैं, तथा नील के आकार क्षणिकत्व आदि के आकारों के धारण में भेदसूचक अन्य कोई विशेषता नहीं है अर्थात् विशेषान्तर का अभाव है अत: नीलाकारत्व होने
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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