________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 210 गृह्णातीति व्यवहरतीति तत् तस्य ग्राहकत्वात् प्रमाणमर्थाधिगतिः फलं तस्य तदर्थत्वात् / न च संवेदनादर्थसारूप्यमन्यदेव स्वसंवेद्यत्वादधिगतिवत् / न ह्यधिगतिः संवेदनादन्या तस्यानधिगमप्रसंगात् / ततस्तदेव प्रमाणं फलं न पुनः प्रमाणात्तत्फलं भिन्नमन्यत्र कल्पनामात्रादिति केचित्॥ तन्न युक्तं निरंशायाः संवित्तेर्द्वयरूपतां / प्रतिकल्पयतां हेतुविशेषासंभवित्वतः // 31 // न हि निरंशां संवित्तिं स्वयमुपेत्य प्रमाणफलद्वयरूपतां तत्त्वप्रविभागेन कल्पयंतो युक्तिवादिनस्तथा कल्पने हेतुविशेषस्यासंभवित्वात् // विना हेतुविशेषेण नान्यव्यावृत्तिमात्रतः / कल्पितोर्थोर्थसंसिद्ध्यै सर्वथातिप्रसंगतः // 32 // न हि निमित्तविशेषाद्विना कल्पितं सारूप्यमन्यद्वा किंचिदर्थं साधयति, मनोराज्यादेरपि तथानुषंगात्। पिता का सदृश आकार है क्योंकि "पितास्वरूप पुत्र पिता के रूप को ग्रहण करता है" यह लोक मानते हैं किन्तु वस्तुतः विचार करने पर पुत्र उस पिता के आकार को ग्रहण नहीं करता है। यदि एकान्त से ऐसा मान लिया जाय तो पिता के नि:स्वरूपत्व का प्रसंग आता है अर्थात् स्वकीय आकार को पुत्र को दे देने पर पिता के आकार का अभाव हो जायेगा उसी प्रकार अर्थ के आकार वाला ज्ञान स्वरूप संवेदन अर्थ को ग्रहण करता है, यह केवल लोक व्यवहार है कि ज्ञेय का ग्राहक होने से ज्ञान प्रमाण है और अर्थ का अधिगम होना प्रमाण का फल है, क्योंकि उस प्रमाण की उत्पत्ति अर्थाधिगम के लिए होती है। अर्थाकारता संवेदन (ज्ञान से) अन्य नहीं है। जैसे स्वसंवेद्य होने से अधिगम प्रमाण से भिन्न नहीं है क्योंकि अधिगति संवेदना से अन्य नहीं है। अन्यथा (यदि अधिगति को प्रमाण से भिन्न माना जायेगा तो) संवेदन के भी अनधिगमत्व का प्रसंग आयेगा अतः वही प्रमाण है और वही फल है। प्रमाण से भिन्न कोई दूसरा प्रमाण का फल नहीं है केवल प्रमाण और प्रमाण से भिन्न फल की कल्पना करना मात्र है। ऐसा कोई बौद्ध कहते हैं। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं: उपरिकथित बौद्धों का कथन युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि निरंश (नि:स्वभाव) संवित्ति के प्रमाण और प्रमाण के फलस्वरूप दो रूपता की कल्पना करने वालों के यहाँ हेतु विशेष की असंभवता है॥३१॥ स्वभाव, अतिशय, धर्म आदि अंशों से सर्वथा रहित माने गये संवेदन को स्वीकार कर तत्त्वों के प्रकृष्ट विभाग करके प्रमाण और फल इन दो की कल्पना करने वाले बौद्ध युक्तिपूर्वक कहने वाले नहीं हैं क्योंकि निःस्वभाव पदार्थ में किसी विशेष हेतु का होना संभव नहीं है। हेतु विशेष के बिना अन्य व्यावृत्ति मात्र से कल्पित अर्थ प्रयोजन की सिद्धि के लिए नहीं है अन्यथा सर्वथा अतिप्रसंग दोष आता है अर्थात् केवल अप्रमाण व्यावृत्ति से प्रमाणपना और अफल व्यावृत्ति से फलपना ज्ञान में व्यवस्थित नहीं हो सकता // 32 // वहाँ निमित्त विशेष के बिना कल्पित सारूप्य अथवा अन्य मनोराज्य (मनोमोदक, मानसिक कल्पना विरचित कामिनी आदि) किसी भी अर्थ को सिद्ध नहीं करते हैं। कल्पित वस्तु यदि कार्य सिद्ध करेगी तो मनोराज्यादि के भी कार्य सिद्धि कराने का प्रसंग आयेगा।