SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 209 किंचिदिति स्वार्थविनिश्चंयस्य भावादतिव्याप्तिरित्यपि न शंकनीयं , आकारग्रहणात् / न हि तत्र स्वार्थाकारस्य विनिश्चयोस्ति निराकारस्य सन्मात्रस्य तेनालोचनात् / विपर्ययज्ञाने कस्यचित्कदाचित् क्वचित्स्वार्थाकारनिश्चयस्य भावादपि नातिव्याप्तिर्विग्रहणात् / विशेषेण देशकालनरांतरापेक्षबाधकाभावरूपेण निश्चयो हि विनिश्चयः, स च विपर्ययज्ञाने नास्तीति निरवद्यः स्वार्थाकारविनिश्चयोधिगमः कात्स्य॑तः प्रमाणस्य देशतो नयानामभिन्नफलत्वेन कथंचित्प्रत्येय: प्रमाणनयतत्फलविद्भिः। एवं च प्रमाणनयैरधिगम इत्यत्र सूत्रे प्रमाणनयानां यत्करणत्वेन वचनं सूत्रकारस्य तघटनां यात्येव, तेभ्योधिगमस्य फलस्य कथंचिभेदसिद्धेः॥ सारूप्यस्य प्रमाणस्य स्वभावोधिगमः फलम् / तद्भेदः कल्पनामात्रादिति केचित्प्रपेदिरे // 30 // संवेदनस्यार्थेन सारूप्यं प्रमाणं तत्र ग्राहकतया व्याप्रियमाणत्वात् पुत्रस्य पित्रा सारूप्यवत् / पितृस्वरूपो हि पुत्रः पितृरूपं गृह्णातीति लोकोभिमन्यते न च तत्त्वतस्तस्य ग्राहको नीरुपत्वप्रसंगात् / तद्वदर्थसरूपसंवेदनमर्थं चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन आदि में 'कुछ है' ऐसा महासत्ता के आलोचनरूप स्व और अर्थ का निश्चय हो जाने से प्रमाण का लक्षण अव्याप्ति दोष से दूषित है। ऐसी शंका नहीं करना चाहिए क्योंकि स्व आकार के अर्थ के निश्चय करने वाले प्रमाण में वस्तु के आकार का ग्रहण होता है परन्तु निर्विकल्प दर्शन में स्वार्थ का विनिश्चय नहीं है। दर्शन में केवल सामान्य सत्ता मात्र का अवलोकन होता है अत: विशेष रूप से स्वार्थाकार का निर्णय कराने वाले प्रमाण, नय ज्ञान नहीं हैं। किसी व्यक्ति को किसी काल में किसी स्थल पर विपर्यय ज्ञान में अपने अर्थ के आकार का सद्भाव होन से 'स्वार्थ निश्चयात्मक' प्रमाण के लक्षण में अतिव्याप्ति दोष नहीं है क्योंकि विनिश्चय में वि पद का ग्रहण है, विशेष रूप से देशकाल और मनुष्यों की अपेक्षा बाधा के अभाव रूप से निश्चय को विनिश्चय कहते हैं। वह विनिश्चय विपर्यय ज्ञान में नहीं है, इस प्रकार निर्दोष स्वार्थाकार के विनिश्चय का सम्पूर्ण रूप से अधिगम करने वाले प्रमाण का और एकदेश पदार्थों का विनिश्चय करने वाले नयों का अभिन्न फलस्वरूप से कथंचित् निर्णय होता है अर्थात् एकदेश रूप से पदार्थ का निश्चय करने वाले नयों के और सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाले प्रमाण को जानने वाले विद्वानों को उन नय और प्रमाणों के स्वार्थ के निश्चयात्मक फल को नय और प्रमाण से कथञ्चित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है, ऐसा समझना चाहिए। “प्रमाणनयैरधिगमः" इस सूत्र में प्रमाण और नयों का जो तृतीयान्त करण (विभक्ति) से कथन किया है इसमें सूत्रकार का वचन घटित हो ही जाता है, अत: नय और प्रमाण से अधिगम रूप फल कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न सिद्ध होता है। सारूप्य प्रमाण का स्वभाव ही अधिगम है और वही फल है अत: कल्पना मात्र से प्रमाण और उसके अधिगम रूप फल को भेद रूप मान लिया जाता है, वास्तव में कोई भेद नहीं है, ऐसा कोई (बौद्ध) कहते हैं॥३०॥ संवेदन का (ज्ञान का) अर्थ के साथ तदाकार हो जाना ही प्रमाण है। क्योंकि उस आकार को देने वाले विषय में ग्राहकपने से प्रमाण व्यापार करता है। जैसे कि पुत्र को पिता के साथ घटना कराने वाला
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy