________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 208 चार्थत्वेऽर्थव्यवसाय इत्यस्तु , नार्थ: स्वग्रहणेन / सत्यं / केवलं स्वस्मै योग्योर्थः स्वात्मा परात्मा तदुभयं वा स्वार्थ इत्यपि व्याख्याने तद्ग्रहणस्य सार्थकत्वान्न दोषः / स्वरूपलक्षणेथे व्यवसायस्याप्रमाणेपि भावादतिव्याप्तिरितिचेत् न, तत्र सर्ववेदनस्य प्रमाणत्वोपगमात्। न च प्रमाणत्वाप्रमाणत्वयोरेकत्र विरोधः, संवादासंवाददर्शनात्तथा व्यवस्थानात् / सर्वत्र प्रमाणेतरत्वयोस्तावन्मात्रायत्तत्वादिति वक्ष्यते / चक्षुर्दर्शनादौ करता है वह अर्थ है, अत: वह ज्ञान का स्वरूप ही गम्यमान होने के कारण अर्थ है। अन्यथा बाह्य घटादि पदार्थों के भी अनर्थ का प्रसंग आयेगा। भावार्थ : अर्थ शब्द की निरुक्ति से जैसे घट, पट, आदि बाह्य पदार्थ अर्थ हैं और ज्ञान के विषय हैं, उसी प्रकार ज्ञान भी अर्थ है और ज्ञान का विषय है यदि ज्ञान को अर्थ नहीं मानेंगे तो बाह्य पदार्थ भी अर्थ नहीं हो सकते। शंका : यदि अंतरंग ज्ञान के स्वरूप को और बहिरंग घट, स्वलक्षण, आदि पदार्थों को अर्थपना इष्ट है, तो प्रमाण का लक्षण ‘अर्थ का व्यवसाय करना' इतना ही कहना चाहिए, स्वपद के ग्रहण से कोई प्रयोजन नहीं है। समाधान : तुम्हारा कहना सत्य है परन्तु 'स्व' शब्द का अन्तिम निष्कर्ष यह है कि जो प्रमाण का विषय अर्थ है, वह स्व के लिए योग्य होना चाहिए अर्थात् स्व (ज्ञान) के लिए योग्य अर्थस्वरूप है और अन्य पर रूप है अथवा दोनों का स्वरूप स्वार्थ है, इस प्रकार निरुक्ति अर्थ करने पर स्व का ग्रहण करना ही प्रयोजनीभूत है। अथवा स्वात्मा, परात्मा और उभय अर्थ को स्वार्थ कहते हैं अर्थात् स्वपद के बिना “स्वयं ज्ञान के योग्य स्व, पर और उभय अर्थ का ज्ञान द्वारा निर्णय होता है यह अर्थ नहीं निकल सकता अतः स्व, पर और उभय का अर्थ स्वार्थ करने पर 'स्व' का ग्रहण करना सार्थक होने से 'स्व' का ग्रहण दोष नहीं है। ___ “स्वरूप लक्षण को अर्थ मानने पर संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप अप्रमाण ज्ञानों में भी व्यवसाय का सद्भाव होने से अतिव्याप्ति दोष आता है अर्थात् जैसे प्रमाण ज्ञान में वस्तु का निश्चय है उसी प्रकार अप्रमाण में भी वस्तु का निश्चय पाया जाता है अत: स्वार्थ निश्चयात्मक प्रमाण का लक्षण लक्ष्य (प्रमाण) और अलक्ष्य (अप्रमाण) में जाने से अतिव्याप्ति दोष से दूषित है ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि स्वकीय स्वरूप को जानने में प्रमाण, अप्रमाण रूप सभी ज्ञानों को इष्ट किया है। तथा प्रमाण और अप्रमाण के एकत्र स्थान में रहने का विरोध भी नहीं है। स्वज्ञान अंश को जानने में मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान दोनों प्रमाणभूत हैं क्योंकि एक ही ज्ञान संवाद-असंवाद रूप देखा जाता है तथा मिथ्याज्ञान में भी स्व को जानने की अपेक्षा संवादकत्व और पर पदार्थों को जानने की अपेक्षा अंसवादकत्व है अत: एक मिथ्याज्ञान में प्रमाण और अप्रमाण की व्यवस्था है क्योंकि सभी ज्ञानों में प्रमाणपना और अप्रमाणपना केवल संवादकत्व और असंवादकत्व के आधीन है ? इसका वर्णन आगे करेंगे। 1. स्वविषय की निश्चिति को संवादकत्व और अनिश्चिति को विसंवाद कहते हैं।