________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 207 न, यथाप्रतीति तदभ्युपगमात् स्वार्थव्यवसायस्वभावद्वयात् कथंचिदभिन्नस्यैकस्य ज्ञानस्य प्रतिपत्तेः / सर्वथा ततस्तस्य भेदाभेदयोरसंभवात्, तत्पक्षभाविदूषणस्य निर्विषयत्वाद्दूषणाभासतोपपत्तेः / परिकल्पितयोर्भेदाभेदैकांतयोस्तद्रूषणस्य प्रवृत्तौ सर्वत्र प्रवृत्तिप्रसंगात् कस्यचिदिष्टतत्त्वव्यवस्थानुपपत्तेः / स्वसंवेदनमात्रमपि हि स्वरूपं संवेदयमानं येनात्मना संवेदयते तस्य हेतोर्भेदाभेदैकांतकल्पनायां यथोपवर्णितदूषणमवतरति किं पुनरन्यत्र / यदि पुन: संवेदनं संवेदनमेव , तस्य स्वरूपे वेद्यवेदकभावात् संवृत्या तत्स्वरूपं संवेदयत इति वचनं तदा स्वार्थव्यवसायः / स्वार्थव्यवसाय एव स्वस्यार्थस्य च व्यवसाय इत्ययोद्धारकल्पनया नयव्यवहारात्। ततो नासंभवः / स्वार्थविनिश्चयस्य स्वसंवेदनेर्थव्यवसायासत्त्वादव्याप्तिरिति चेन्न, ज्ञानस्वरूपस्यैवार्थत्वात् तस्यार्यमाणत्वादन्यथा बहिरर्थस्याप्यनर्थत्वप्रसंगात् / ननु स्वरूपस्य बाह्यस्य (उलाहना) स्याद्वाद सिद्धान्तवादी के प्रति लागू नहीं होता है क्योंकि स्याद्वादी प्रतीति के अनुसार उस व्यवस्था को स्वीकार करते हैं। स्वका निश्चय करने वाले और अर्थ को निश्चय करने वाले दोनों ज्ञान के स्वभाव ज्ञान से कथञ्चित् अभिन्न हैं, ऐसे एक ज्ञान के प्रतीत होते हैं अर्थात् एक ज्ञान ही स्वार्थ परार्थ का निश्चय करता है यह ज्ञान का स्वभाव है। ज्ञान से ज्ञान के स्वभाव सर्वथा भिन्न या अभिन्न नहीं हैं अर्थात् उनमें भेद और अभेद की असंभवता है। स्वभाव और स्वभाववान में कथंचित् भेद और अभेद स्वीकार करने पर बौद्ध द्वारा कथित अनवस्था दोष स्याद्वाद सिद्धान्त में लागू नहीं होते हैं अत: बौद्धों के द्वारा दिया गया दूषण निर्विषय होने से दूषणाभास है। . अन्य वादियों के द्वारा कल्पित भेद एकान्त या अभेद एकान्त में अनवस्था दूषण की प्रवृत्ति होने पर सर्वत्र प्रमाण सिद्ध पदार्थों में भी अनेक दूषणों की प्रवृत्ति का प्रसंग आता है क्योंकि किसी भी वादी के स्वकीय इष्टतत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकती। स्व संवेदन मात्र भी अपने स्वरूप का संवेदन करता हुआ जिस स्वरूप से संवेदन करता है, उस स्वभाव का अपने कारणभूत संवेदन से सर्वथा भेद या एकान्त अभेद रूप कल्पना करने पर उपरि कथित दोषों का अवतार (उत्पत्ति) हो सकता है परन्तु अनेकान्तवाद में दूषण नहीं है और तो कहना ही क्या? एकान्तवाद में सर्वत्र दूषण आ सकते हैं। . यदि पुनः कहो कि संवेदन तो संवेदन रूप ही है उस संवेदन का अपने स्वरूप में ही वेद्य और वेदकपना है वह संवेदन स्वकीय स्वरूप को ही जानता है संवृत्ति (व्यवहार) से स्व स्वरूप का वेदन करता है, ऐसा भेदरूप वचन कहा जाता है। वस्तुतः अकेले संवेदन में कर्ता, कर्म, क्रिया कैसे बन सकते हैं ? इस प्रकार कहने वाले बौद्धों के प्रति जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो स्व और अर्थ का निर्णय करना तो स्वार्थ का निर्णय करना है। स्व और अर्थ का निश्चय करना यह भेद कथन व्यवहार नय से कल्पित है अतः स्व और अर्थ का निश्चय करना दोष से दूषित या असंभव नहीं है। . स्वार्थ के निश्चय का स्व से वेदन करने में बाह्य पदार्थ का निश्चय होना विद्यमान नहीं है, अतः प्रमाण के स्वार्थ विनिश्चय इस लक्षण की अव्याप्ति है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि वहाँ ज्ञान का स्वरूप ही अर्थ हो जाता है। “अर्य्यते गम्यत इत्यर्थः" इस निरुक्ति से जो ‘जाना जाता है' अपने पर्यायों का अनुगत