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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 206 नायं दोषः। ननु च येनात्मना ज्ञानमात्मानं व्यवस्यति येन चार्थं तौ यदि ततोनन्यौ तदा तावेव न ज्ञानं तस्य तत्र प्रवेशात्, स्वरूपवत् ज्ञानमेव वा तयोस्तत्रानुप्रवेशात् / तथाच न स्वार्थव्यवसाय: / यदि पुनस्तौ ततोन्यौ, तदा स्वसंवेद्यौ स्वाश्रयज्ञानवेद्यौ वा? प्रथमपक्षे स्वसंविदितज्ञानत्रयप्रसंगः तत्र च प्रत्येकं स्वार्थव्यवसायात्मकत्वे स एव पर्यनुयोगोऽनवस्था च / द्वितीयपक्षेपि स्वार्थव्यवसायहेतुभूतयोः स्वस्वभावयोर्ज्ञानं यदि व्यवसायात्मकं तदा स एव दोषोऽन्यथा प्रमाणत्वाघटनात् / ततो न स्वार्थव्यवसाय: संभवतीत्येकांतवादिनामुपालंभः, स्याद्वादिनां ___ “बौद्ध का कथन स्याद्वाद सिद्धान्त में स्व और अर्थ का निश्चय करने वाला ज्ञान है, वह ज्ञान जिस स्वरूप से अपना निश्चय करता है, अपने को जानता है और जिस स्वभाव से पदार्थों का निश्चय करता है वे ज्ञान के दोनों स्वभाव यदि ज्ञान से अभिन्न हैं तो ज्ञान के दो स्वभाव मानने चाहिए ; ज्ञान को नहीं मानना चाहिए क्योंकि ज्ञान का उन दोनों स्वभावों में ही अन्तर्भाव हो जाता हैं। दोनों स्वभावों के स्वभाव का तादात्म्य सम्बन्ध है अत: दोनों स्वभावों में गर्भित हो जाता है। यदि ज्ञान और ज्ञान के स्वभाव अभिन्न हैं तो अकेले ज्ञान को मानना चाहिए, उसके दो स्वभावों को नहीं मानना चाहिए क्योंकि ये दोनों स्वभाव ज्ञान में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं इसलिए स्वार्थ का निश्चय ज्ञान से नहीं होता है अर्थात् ज्ञान स्व को नहीं जानता है। यदि वे दोनों स्वभाव ज्ञान से भिन्न हैं तब क्या वे दोनों स्वभाव अपने आपको स्वयमेव जान लेते हैं ? अथवा अपने आधारभूत ज्ञान के द्वारा दोनों जाने जाते हैं ? प्रथम पक्ष (अपने आपको स्वयमेव जानते हैं) को ग्रहण करने पर तो अपने आप अपने को जानने वाले तीन स्वसंवेदी ज्ञान मानने का प्रसंग आयेगा वा उनमें प्रत्येक को स्व और अर्थ का निश्चयात्मक मानने पर, पुनः दो प्रश्न उठेंगे अर्थात् दो स्वभाव वाले वे तीनों ज्ञान वा एक ज्ञान जिस स्वभाव से अपना और जिस स्वभाव से अर्थ का निर्णय करते हैं, वे स्वभाव ज्ञान से भिन्न हैं ? या अभिन्न हैं ? यदि स्वभाव ज्ञान से अभिन्न हैं तब तो दो स्वभाव मानने चाहिए, ज्ञान को नहीं, क्योंकि ज्ञान स्वभाव ज्ञान में गर्भित हो जायेगा। अथवा एक ज्ञान ही स्वीकार करना चाहिए,स्वभाव के दो भेद स्वीकार नहीं करने चाहिए क्योंकि वे दोनों स्वभाव ज्ञान में गर्भित हो जाते हैं। यदि ज्ञान से स्वभाव को भिन्न मानते हैं तो अपने आपको जानने के लिए तीन स्वसंवेदी ज्ञान के मानने का प्रसंग आयेगा। फिर भी प्रश्नमालाओं की शांति न होने से अनवस्था दोष आयेगा। ___ यदि द्वितीय पक्ष के अनुसार ज्ञान के भिन्न दो स्वभावों को उनके आधारभूत ज्ञान के द्वारा वेद्य माना जायेगा तो स्व और अर्थ के निश्चय कराने में कारणभूत उन अपने दोनों स्वभावों का ज्ञान यदि निश्चयात्मक है तब तो उपरिकथित वही अनवस्था दोष आयेगा अर्थात् भिन्न दो स्वभावों को ज्ञान के द्वारा स्व निश्चयात्मक मानने पर भिन्न-भिन्न अनेक स्वभावों की कल्पना करनी पड़ेगी और वे स्वभाव भी अपने-अपने आधारभूत ज्ञानों के द्वारा जानने योग्य होंगे अत: अनवस्था दोष आयेगा। अन्यथा (यदि अपने स्वभावों को जानने वाले ज्ञान यदि निश्चयात्मक नहीं होते हैं तो) उनमें प्रमाणत्व घटित नहीं हो सकता। क्योंकि जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रमाण को निश्चयात्मक माना गया है परन्तु ज्ञान में स्वार्थ निश्चयात्मकत्व संभव नहीं है अर्थात् ज्ञान स्वार्थ निश्चयात्मक नहीं है। "जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार एकान्तवादी के द्वारा कथित उपालंभ
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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