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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 203 नार्थव्यवसायस्तद्व्यतिरेकेणार्थस्याभावादिति केचिद्वेदांतवादिनः, तेपि न तात्त्विकाः / पुरुषाद्भिन्नस्याजीवार्थस्य जीवादिसूत्रे साधितत्वात् तद्व्यवसायस्यापि घटनात् / अर्थस्यैव व्यवसायो न स्वस्य स्वात्मनि क्रियाविरोधादित्यपरः / सोपि यत्किंचनभाषी , स्वात्मन्येव क्रियायाः प्रतीतेः / स्वात्मा हि क्रियायाः स्वरूपं यदि तदा कथं तत्र तद्विरोधः सर्वस्य वस्तुनः स्वरूपे विरोधानुषक्तेनि:स्वरूपत्वप्रसंगात् / क्रियावदात्मा स्वात्मा चेत् , तत्र तद्विरोधे क्रियाया निराश्रयत्वं सर्वद्रव्यस्य च निष्क्रियत्वमुपढौकेत / न चैवं / कर्मस्थायाः क्रियायाः कर्मणि कर्तृस्थायाः कर्तरि प्रतीयमानत्वात् / यदि पुन: ज्ञानक्रियायाः कर्तृसमवायिन्याः स्वात्मनि कर्मतया कोई वेदान्तवादी कहते हैं कि प्रमाण और नय के द्वारा पुरुष (आत्मा) का ही अधिगम (निश्चय) होता है, पदार्थों का निश्चय नहीं होता है, क्योंकि आत्मा के सिवाय अन्य पदार्थों का अभाव है। इसके उत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि वे वेदान्तवादी भी तात्त्विक (वास्तविक तत्त्वों को जानने वाले) नहीं हैं। क्योंकि पुरुष से भिन्न अजीव पदार्थ की “जीवाजीवासव" आदि सूत्र में सिद्धि की है। इसलिए ज्ञान या आत्मा के सिवाय अर्थ का निर्णय होना घटित हो जाता है। प्रमाण और नय के द्वारा अर्थ का ही निश्चय होता है, आत्मा का नहीं, क्योंकि स्वयं की स्वात्मा में क्रिया नहीं होती है ऐसा कोई (वैशेषिक) कहते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने वाला यद्वातद्वाभावी है (योग्यायोग्य का विचार करने वाला नहीं है) क्योंकि स्वात्मा में ही क्रिया की प्रतीति होती है। यदि स्वात्मा ही क्रिया का स्वरूप है तो वहाँ स्वात्म क्रिया का विरोध कैसे है ? अन्यथा (यदि स्वात्मा में क्रिया नहीं मानेंगे तो) सभी वस्तुओं के स्वरूप में विरोध का प्रसंग होने से सम्पूर्ण पदार्थों के स्वरूप रहितपने का प्रसंग आयेगा। यदि स्वात्मा में क्रिया का विरोध है, यहाँ स्वात्मा की अर्थक्रिया आधार स्वरूप अर्थ लिया जाय और ऐसा करने पर उस क्रियावान में उस क्रिया के रहने का विरोध माना जायेगा तब तो सम्पूर्ण क्रियायें आश्रय रहित हो जाएंगी और सम्पूर्ण द्रव्यों के क्रियारहितपने का प्रसंग आयेगा। परन्तु इस प्रकार क्रियाओं का निराधारपना और द्रव्यों की क्रिया दृष्टिगोचर नहीं हो रही है, प्रत्युत् कर्म में रहने वाली सकर्म क्रिया का कर्म में रहना प्रतीत हो रहा है और कर्ता में रहने वाली अकर्मक क्रियाएँ कर्त्ता में स्थित देखी जाती हैं अर्थात् कर्म वाच्य-वाक्य में कर्म के अनुसार क्रिया देखी जाती है। “मया रोटिका खाद्यते” इस वाक्य में रोटी रूप कर्म के अनुसार क्रिया एकवचन प्रथम पुरुष है। “अहं रोटिकां खादामि' इस कर्तृ वाच्य में कर्ता "अहं" के अनुसार उत्तम पुरुष की क्रिया है, अत: कर्ता और कर्म के अनुसार क्रिया की प्रतीति होती है, अर्थात् क्रिया साश्रय है और द्रव्य सक्रिय है। यदि फिर किसी का कथन हो कि कर्त्ता में समवाय सम्बन्ध से रहने वाली ज्ञान क्रिया का अपने स्वरूप से कर्मत्व में रहने का विरोध है, क्योंकि उस अपने स्वरूप से भिन्न अन्य पदार्थ में ही कर्मपना देखा जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने पर तो “ज्ञान के द्वारा मैं अर्थ को जानता हूँ" इस स्थल में ज्ञान के करणत्व के साथ भी विरोध होगा क्योंकि कथंचित् क्रिया से भिन्न भी करण देखा जाता है (अर्थात्-वृक्ष को काटने वाला कुठार (करण) छेदन क्रिया से भिन्न है अत: ज्ञान क्रिया का कारण ज्ञान नहीं हो सकेगा।)
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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