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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 204 विरोधस्ततोन्यत्रैव कर्मत्वदर्शनादिति मतं, तदा ज्ञानेनार्थमहं जानामीत्यत्र ज्ञानस्य करणतयापि विरोध: स्यात् क्रियातोन्यस्य करणत्वदर्शनात् / ज्ञानक्रियायाः करणज्ञानस्य चान्यत्वादविरोध इति चेत् , किं पुन: करणज्ञानं का वा ज्ञानक्रिया ? विशेषणज्ञानं करणं विशेष्यज्ञानं तत्फलत्वात् ज्ञानक्रियेति चेत् , स्यादेवं यदि विशेषणज्ञानेन विशेष्यं जानामीति प्रतीतिरुत्पद्येत। न च कस्यचिदुत्पद्यते / विशेषणज्ञानेन विशेषणं विशेष्यज्ञानेन च विशेष्यं जानामीत्यनुभवात् / करणत्वेन ज्ञानक्रियायाः प्रतीयमानत्वादविरोधे कर्मत्वेनाप्यत एवाविरोधोस्तु , विशेषाभावात् / चक्षुरादिकरणं ज्ञानक्रियातो भिन्नमेवेति चेन्न, ज्ञानेनार्थं जानामीत्यपि प्रतीतेः। ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं चक्षुरायेव ज्ञानक्रियायां साधकतमं करणमिति चेत् न , तस्य साधकतमत्वनिराकरणात् / तत्र ज्ञानस्यैव साधकतमत्वोपपत्तेः / ननु यदेवार्थस्य ज्ञानक्रियायां ज्ञानं करणं सैव ज्ञानक्रिया तत्र कथं क्रियाकरणव्यवहारः, "ज्ञप्ति रूप ज्ञान क्रिया से करणरूप ज्ञान भिन्न है इसलिए भिन्न ज्ञान के द्वारा ज्ञप्ति रूप क्रिया हो जाने में कोई विरोध नहीं है ऐसा वैशेषिक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि वह करण ज्ञान क्या है ? क्या उस करण ज्ञान से भिन्न ज्ञप्ति क्रिया है ? यदि विशेषण ज्ञान को करण और विशेष्य ज्ञान को विशेषण, ज्ञान के फल होने से ज्ञान की क्रिया कहते हो तो इस प्रकार कहना तब सिद्ध हो सकता है कि यदि विशेषण ज्ञान के द्वारा “मैं विशेष्य को जानता हूँ" ऐसी प्रतीति उत्पन्न होती हो। परन्तु ऐसी प्रतीति किसी भी जीव को उत्पन्न नहीं होती है अपितु विशेषण ज्ञान के द्वारा विशेषण को और विशेष्य ज्ञान के द्वारा विशेष्य को जानता हूँ-ऐसी प्रतीति होती है (अर्थात् कृष्ण वर्ण के ज्ञान से गाय का ज्ञान नहीं होता है, अपितु कृष्ण वर्ण के ज्ञान से कृष्ण का और गाय के ज्ञान से गाय का ज्ञान होता है।) “प्रतीति के अनुसार वस्तु की व्यवस्था होती है और ज्ञान क्रिया की करणत्व से ज्ञान के साथ रहने की प्रतीति हो रही है अत: कोई विरोध नहीं है" ऐसा वैशेषिक के कहने पर स्याद्वाद सिद्धान्त में भी कथंचित् भेद की अपेक्षा कर्मत्व और करणत्व में कोई अन्तर नहीं होने से, ज्ञान क्रिया का ज्ञान के साथ कर्मत्व को प्राप्त होने में कोई विरोध नहीं है-क्योंकि ऐसी प्रतीति होती है। चक्षु, आलोक, सन्निकर्ष आदि करण, ज्ञान क्रिया से सर्वथा भिन्न हैं, ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि “मैं ज्ञान के द्वारा पदार्थ को जानता हूँ" ऐसी प्रतीति होती है। “जिसके द्वारा जाना जाता है-वह ज्ञान है" अतः इस निरुक्ति अर्थ से "ज्ञान शब्द के अर्थ नेत्र आलोक आदि ही ज्ञान क्रिया के साधकतम करण होते हैं," ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि नेत्र आलोक आदि को ज्ञप्ति क्रिया के साधकतम का निराकरण किया गया है अर्थात् चक्षु आदि इन्द्रियाँ तथा आलोक आदि ज्ञप्ति क्रिया के साधकतम करण नहीं हैं अपितु निमित्त कारण हैं क्योंकि ज्ञप्ति क्रिया का साधकतम करणपना तो ज्ञान के ही सिद्ध है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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