________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 202 दर्शनं तत्प्रबोधकं युक्तं, व्यभिचारात् / नीलादौ दर्शनस्य सामर्थ्य विशेषस्तत्कार्येण विकल्पेनानुमीयमानस्तद्वासनायाः प्रबोधको नाभ्यासादिति चेत् तर्हि सामर्थ्य विशेषोर्थस्यैव साक्षाव्यवसायेनामीयमानो व्यवसायस्य जनकोस्तु किमदृष्टपरिकल्पनया ? यतश्च सामर्थ्यविशेषाद्दर्शनं व्यवसायस्य जनकं तद्वासनायाश्च प्रबोधकं तत एवात्मा तज्जनकस्तत्प्रबोधकश्चास्तु / तथा च नाम्न्येव विवादो दर्शनमात्मेति नार्थे तत्तदावरणविच्छेदविशिष्टस्यात्मन एवेंद्रियादिबहिरंगकारणापेक्षस्य यथासंभवं व्यवसायजनकत्वेनेष्टत्वात् तद्व्यतिरेकेण दर्शनस्याप्रतीतिकत्वाच्चेति निवेदयिष्यते प्रत्यक्षप्रकरणे / ततो नाध्यवसायात्मा प्रत्येयोधिगमोर्थानां सर्वथानुपपन्नत्वात् / पुरुषस्य स्वव्यवसाय एवाधिगमो "नील आदिक के निर्विकल्प ज्ञान के अनन्तर उसका कार्य नील आदि के सविकल्प का ज्ञान होना देखा जाता है, परन्तु क्षणिकत्व के ज्ञान के पश्चात् विकल्प का ज्ञान रूप कार्य नहीं देखा जाता है, अत: नीलादि में उत्पन्न निर्विकल्प दर्शन के कार्य रूप विकल्प ज्ञान से नील दर्शन के विशेष सामर्थ्य का अनुमान कर लिया जाता है। वह अनुमान से ज्ञात किया गया विलक्षण सामर्थ्य ही नील आदि की विकल्प वासना का उद्बोधक है। अभ्यास, प्रकरण आदि विकल्प वासना के उद्बोधक नहीं हैं। जिस विशेष सामर्थ्य से विकल्प वासना उत्पन्न होती है, वह सामर्थ्य क्षणिकत्व दर्शन में नहीं है, अतः क्षणक्षयादि में विकल्प वासना जागृत नहीं होती है। इस प्रकार बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो निश्चयात्मक ज्ञान से अनुमान किया गया विशेष सामर्थ्य ही अर्थ के साक्षात् निर्णय कराने का जनक है अत: अदृष्ट अप्रामाणिक कल्पना करने से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् प्रथम निर्विकल्प ज्ञान उत्पन्न करना और पीछे उस निर्विकल्प के सामर्थ्य से सविकल्प ज्ञान उत्पन्न होता है-ऐसा मानना युक्तिसंगत नहीं दिखता है। "अथवा-निर्विकल्प दर्शन (ज्ञान) सामर्थ्य विशेष से व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) ज्ञान का उत्पादक है और वह निश्चयात्मक ज्ञान वासना का प्रबोधक है" इस प्रकार कहने पर तो अपने सामर्थ्य से आत्मा ही उस निश्चय का जनक और उसकी वासना का प्रबोधक हो जायेगा अतः स्याद्वाद और बौद्ध सिद्धान्त में नाम मात्र का ही विवाद है कि बौद्ध निर्विकल्पदर्शन को निश्चय का उत्पादक मानता है और स्याद्वाद सिद्धान्त आत्मा को निश्चयात्मक ज्ञान का उत्पादक मानता है अतः आत्मा और दर्शन नाम मात्र का भेद है। स्वकीय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष से विशिष्ट आत्मा ही इन्द्रिय, मन:प्रकाश आदि बाह्य कारणों की सहायता से यथायोग्य निश्चय ज्ञान का जनक होता है, ऐसा स्याद्वाद सिद्धान्त में इष्ट है। उस आत्म द्रव्य से अतिरिक्त निर्विकल्प दर्शन की कभी प्रतीति नहीं होती है। इसका वर्णन आगे प्रत्यक्ष ज्ञान के प्रकरण में करेंगे अतः प्रमाण और नय के द्वारा अर्थों का निश्चयात्मक अधिगम होता है। प्रमाण और नयों के द्वारा अर्थों का अनिश्चयात्मक दर्शन या अनध्यवसाय स्वरूप ज्ञान नहीं होता है अतः सौगत का अनुमान सर्वथा अनुपपन्न है युक्तियों से सिद्ध नहीं है।